संविधान का लोकप्रियकरण : भारतीय राजनीति का एक नया चरण

हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में चुनाव की तैयारियाँ ज़ोरों पर हैं। यदि हरियाणा में कांग्रेस, आम आदमी पार्टी (AAP), और समाजवादी पार्टी (SP) का सफल गठबंधन होता है तो हरियाणा की राजनीति में एक दिलचस्प मोड़ आ सकता है। विगत लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद यह कहना कितना सही है कि हवा अब उन पार्टियों की ओर मुड़ गई है जो INDIA-ब्लॉक का हिस्सा हैं? इसका एक संकेत हमें सात राज्यों—तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, बंगाल, मध्य प्रदेश, और बिहार—में हुए उपचुनावों के परिणामों से मिल सकता है। इन चुनावों में इंडिया-ब्लॉक से जुड़े उम्मीदवारों की जीत हुई थी। जहां इंडिया-ब्लॉक की पार्टियों ने 10 सीटें जीतीं, वहीं भाजपा केवल 2 सीटें ही हासिल कर पाई थी। हालांकि, हमें इन जीतों को “INDIA-ब्लॉक की जीत” के रूप में पूरी तरह से स्वीकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि कुछ सीटों पर इंडिया-ब्लॉक के सहयोगियों ने एक-दूसरे के खिलाफ ही मुकाबला किया था। लेकिन इस बात पर हम सहमत हो सकते है कि राजनीति में पार्टियों के बीच एक बड़ी लड़ाई धारणाओं की भी होती है, और बीते उपचुनाव में जीत की धारणा उन पार्टियों की तरफ झुकी दिखी जो इंडिया-ब्लॉक के खेमें में हैं।

हालिया उपचुनावों में जीत का अंतर भी महत्वपूर्ण रहा है। उदाहरण के लिए, मोहिंदर भगत ने जलंधर पश्चिम से 23,000 से अधिक वोटों के अंतर से जीत दर्ज की। डीएमके के अन्नियूर शिवा ने विक्रावंडी विधानसभा सीट 67,000 वोटों के अंतर से जीती। तृणमूल कांग्रेस ने बंगाल में चारों सीटों पर जीत दर्ज की। जबकि कांग्रेस ने अपनी मध्य प्रदेश की सीट भाजपा से खो दी, लेकिन हिमाचल प्रदेश में दो और उत्तराखंड में एक सीट जीती। बिहार के पूर्णिया जिले में रुपौली सीट पर एक स्वतंत्र उम्मीदवार ने जीत हासिल की, जिससे आरजेडी और जेडीयू को निराशा हुई।

उपचुनाव के परिणाम कभी-कभी बदलते राजनीतिक परिदृश्य और जनता के मूड का संकेत देते हैं। पाठकों को सितंबर 2023 में हुए घोसी उपचुनाव की याद होगी, जिसमें भाजपा और सपा के बीच मुकाबला हुआ था। यह इंडिया-ब्लॉक और भाजपा-एनडीए के बीच पहला बड़ा मैदान था, जिसमें सपा ने बड़े वोट अंतर से जीत दर्ज की थी। अखिलेश यादव ने उस चुनाव में पीडीए (पिछड़े, दलित, और अल्पसंख्यक) रणनीति को सफलतापूर्वक आज़माया था। लोकसभा चुनाव में भी वह इसी पीडीए की कहानी को लेकर आगे बढ़े और अपनी पार्टी को अप्रत्याशित जीत दिलाई। सपा अब लोकसभा में 37 सांसदों के साथ तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है।

इंडिया-ब्लॉक के नैरेटिव (narrative) को बढ़त क्यों मिली है? इस चुनाव के दौरान हमने संविधान के “सबल्टर्नीकरण” की प्रक्रिया देखी है — यह एक ऐसा पहलू है जो हमें पहले के चुनावों में नहीं दिखाई देता है। संविधान इस चुनाव के दौरान एक प्रतीकात्मक दस्तावेज़ के रूप में उभरा है। यह अब केवल कोर्टरूम की बहसों और कानून कक्षाओं की चर्चाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक जीवंत दस्तावेज़ बन गया है जिसने पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान यात्रा की है।

संविधान के सबल्टर्नीकरण की प्रक्रिया लोकसभा चुनाव से बहुत पहले शुरू हो गई थी। INDIA-ब्लॉक के सदस्यों ने इस प्रतीकात्मक दस्तावेज़ को अपनाकर जनता को एक संदेश दिया कि वो संविधान के हितैषी है। अनुसूचित जातियाँ (SC) एक लंबे समय से संविधान को न्याय की पुस्तक मानती है।संविधान इन समुदायों को उनके ख़िलाफ़ हुए ऐतिहासिक उत्पीड़न को समझाता है और इन समुदायों को सशक्त बनने का अधिकार देता है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई थी। उनको इस किताब का जनक माना जाता है। भारत के सबसे हाशिए पर रहने वाली जातियाँ संविधान को बौद्धिक उत्कृष्टता और गर्व का प्रतीक भी मानती है। SC, ST, और OBC समुदायों ने आरक्षण को संविधान और डॉ. अंबेडकर के नज़रियें से देखती है। जैसे-जैसे शिक्षित दलितों और पिछड़ी जातियों की संख्या बढ़ी है और उनकी उपस्थिति सार्वजनिक क्षेत्र में आई, यह संबंध सोशल मीडिया, साक्षात्कार, पाठों, और सार्वजनिक भाषणों के माध्यम से और अधिक प्रसिद्ध हुआ।

यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि दलित वोट उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस की ओर जाते दिख रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों में सपा और कांग्रेस का वोट शेयर क्रमशः 18.11 प्रतिशत और 6.37 प्रतिशत से बढ़कर 2024 के लोकसभा चुनावों में 33.59 प्रतिशत और 9.46 प्रतिशत हो गया है। इसी समय, बीएसपी का वोट शेयर 19.43 प्रतिशत से घटकर 9.39 प्रतिशत हो गया है। सपा ने सात आरक्षित सीटों पर जीत हासिल की और कांग्रेस ने एक पर। दिलचस्प बात यह है कि 2019 के चुनाव में इन आरक्षित सीटों पर सपा और कांग्रेस की टैली शून्य थी, क्योंकि बीएसपी और भाजपा-एनडीए ने सभी आरक्षित सीटें जीत ली थीं। दलित वोटों के सपा और कांग्रेस की ओर मुड़ने का एक कारण यह था कि इन पार्टियों ने संविधान की महत्वता को प्रमुखता दी। उन्होंने लोगों को यह विश्वास दिलाया कि वे ही संविधान के मूल्यों की रक्षा करेंगे, उसकी धाराओं का सम्मान करेंगे, और संविधान के सिद्धांतों पर शासन करेंगे। उन्होंने कई मुद्दों को संविधान के प्रतीक के माध्यम से संबोधित किया, जैसे कि नौकरियों में आरक्षित सीटों की कमी को भरना, निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग, और जाति-संख्या की जनगणना।लोकसभा चुनावों के दौरान संविधान की सबल्टर्नीकरण की प्रक्रिया जारी रही। राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने न केवल अपने साक्षात्कारों में इसके बारे में बात की बल्कि अपनी चुनावी रैलियों में प्रतीकात्मक रूप से संविधान की प्रतियाँ लेकर गए।

पॉकेट-साइज संविधान की किताब, जिसे 2009 में लखनऊ स्थित ईस्टर्न बुक कंपनी द्वारा पहली बार प्रकाशित किया गया था, आज भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण प्रतीक बन गई है। यह किताब हाल के वर्षों में निरंतर छप रही है और भारतीय राजनीति के सबसे प्रमुख पाठों में से एक बन गई है। संविधान सभा के सदस्यों ने कभी नहीं सोचा होगा कि संविधान की किताब खुद अभिव्यक्ति प्रदर्शन और चुनावी अभियानों का प्रतीक बन जाएगी। संविधान की दोनों पोकेट साइज और बड़ी संस्करण की किताबें राजनीतिक और लोकप्रिय बौद्धिक सर्कलों में एक मानक उपहार बन गई हैं।

संविधान की भाषा राजनीति को परंपरागत जातिवाद और धर्म के वाद-विवादों से दूर लेकर जाती है जो की एक सकारात्मक बदलाव है। धर्मनिरपेक्षता की अंग्रेज़ी भाषा— जो कि सीमित पहुंच के कारण समाज के एक बड़े हिस्से में प्रभावी नहीं हो पायी—अब संविधान की व्यापक भाषा में एक विकल्प प्राप्त कर चुकी है। संविधान की किताब दलितों, मुसलमानों, उदारवादियों, और पिछड़ी जातियों को एक साथ जोड़ती है, और इसके लाभार्थी INDIA-ब्लॉक की पार्टियाँ रही हैं।

लेखक : अरुण कुमार
नाटिंघम यूनिवर्सिटी में इतिहास के असिस्टेंट प्रोफेसर है

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