आपातकाल की 50वीं बरसी पर देवेंद्र फडणवीस का लेख: उन नायकों को याद करें जिन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष किया

25 जून 1975 — यह दिन भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला अध्याय माना जाता है। इसे “स्वर्ण जयंती” कहना भी विडंबना होगी, क्योंकि जयंती उत्सव का प्रतीक होती है, न कि किसी त्रासदी का। आज हम उस दिन को याद कर रहे हैं जब कांग्रेस पार्टी ने संविधान, संस्थाओं और लोकतंत्र को बूटों तले रौंद दिया था।

इस संकट के बीज 1973 में गुजरात में इंजीनियरिंग छात्रों के फीस वृद्धि विरोध प्रदर्शन से बोए गए थे। 1974 तक आंदोलन ने इतनी ताकत पकड़ ली कि वहां के मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। इसी दौरान बिहार में छात्र आंदोलनों के साथ जेपी आंदोलन की नींव रखी गई। भ्रष्टाचार और पारिवारिक तानाशाही के खिलाफ जयप्रकाश नारायण ने “सम्पूर्ण क्रांति” का आह्वान किया।

1974 में जॉर्ज फर्नांडिस ने देशव्यापी रेलवे हड़ताल का नेतृत्व किया। विरोध की यह लहर 1975 में उस मुकाम पर पहुंची जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को भ्रष्ट चुनावी आचरण में दोषी ठहराया और उनकी लोकसभा सदस्यता पर आंशिक रोक लगा दी। इसके बाद जो हुआ, वह लोकतंत्र की हत्या थी।

25 जून की रात दिल्ली के रामलीला मैदान में जन आंदोलन की ऊंची लहर उठी थी, जिसमें जयप्रकाश नारायण और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता केंद्र में थे। “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” जैसे नारे गूंज रहे थे। लेकिन अगली सुबह आपातकाल लागू हो चुका था — नेता गिरफ्तार, विपक्ष की आवाज बंद, और संविधान को नजरबंद कर दिया गया।

स्कूल-कॉलेज सरकार के प्रचार तंत्र बन गए, मीडिया पूरी तरह सेंसरशिप की गिरफ्त में आ गया। सिर्फ कुछ अखबारों ने विरोध का साहस दिखाया। संजय गांधी के प्रभाव में नौकरशाही भी झुक गई। सुप्रीम कोर्ट तक ने मौलिक अधिकारों की रक्षा करने से इनकार कर दिया। MISA जैसे कानूनों ने पुलिस को मनमानी गिरफ्तारी का खुला अधिकार दे दिया।

3 लाख से अधिक लोगों को जेल में डाला गया, जिनमें समाजवादी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के कार्यकर्ता सबसे आगे थे। दो ही राजनीतिक दल ऐसे थे जिन्होंने आपातकाल का समर्थन किया — भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) और शिवसेना। CPI(M) ने इसका विरोध किया।

यह आपातकाल सिर्फ राजनीतिक संकट नहीं था, बल्कि संविधान निर्माता बाबासाहेब अंबेडकर के विचारों पर भी सीधा हमला था। कांग्रेस पार्टी ने अंबेडकर को उनके जीवनकाल में भी नहीं स्वीकारा और आपातकाल के दौरान उनके बनाए संविधान से भी बदला लिया। आज, जब हम लोकतंत्र की सांस ले रहे हैं, हमें उन नायकों को नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने उस अंधेरे समय में देश को रोशनी की ओर ले जाने का संघर्ष किया।

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