
नई दिल्ली। आज से ठीक 50 साल पहले, 25 जून 1975 की रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल (Emergency) लागू कर दिया था। एक ऐसा कदम जिसने भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को झकझोर दिया। यह 21 महीनों तक चला और आज भी इसे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सबसे बड़ा हमला माना जाता है।
लोकतंत्र से तानाशाही की ओर मोड़
आपातकाल ने भारत को संवैधानिक लोकतंत्र से एकदलीय तानाशाही की दिशा में धकेल दिया। नागरिक स्वतंत्रताओं पर रोक, विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारी, प्रेस की सेंसरशिप, और न्यायपालिका पर दबाव ये सब अभूतपूर्व और खतरनाक कदम थे।
क्यों लागू हुआ आपातकाल?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपातकाल तब लगाया जा सकता है जब देश की सुरक्षा को युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से खतरा हो। लेकिन 1975 में ऐसा कोई बाहरी या आंतरिक खतरा नहीं था। असल में, गुजरात और बिहार में छात्रों द्वारा शुरू किए गए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों, विशेष रूप से जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में चल रही संपूर्ण क्रांति ने सरकार को बुरी तरह हिला दिया था। इस जन आंदोलन में छात्र, किसान, कर्मचारी और आम नागरिक बड़ी संख्या में जुड़ गए थे।
इंदिरा गांधी की चुनावी वैधता रद्द
12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के चुनाव को चुनावी भ्रष्टाचार के आधार पर रद्द कर दिया और उन्हें 6 वर्षों के लिए चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहरा दिया। इसके खिलाफ इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वे प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं, लेकिन संसद में वोट नहीं डाल सकतीं। अगले ही दिन, 25 जून की रात को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के माध्यम से आपातकाल की घोषणा कर दी गई, आंतरिक अशांति का हवाला देते हुए।
सत्ताधारी सत्ता के खिलाफ उठे स्वरों को कुचला गया
लेखक, जो उस समय एक युवा छात्र नेता थे, ने लिखा है कि उन्हें आंध्र प्रदेश में करीब 17 महीने जेल में रखा गया। इस दौर ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी, अगर वे गिरफ्तार नहीं होते, तो शायद वकील बनते, लेकिन आपातकाल ने उन्हें राजनीतिक जीवन की ओर मोड़ दिया।
मीडिया की भूमिका: झुकने को कहा गया, मगर वह रेंग पड़ा
प्रेस की स्वतंत्रता इस दौर में सबसे बुरी तरह प्रभावित हुई। हालांकि कुछ साहसी संस्थानों ने आवाज़ उठाई, जैसे The Indian Express के रमणाथ गोयनका, The Statesman के सी. आर. ईरानी, और The Mainstream के निखिल चक्रवर्ती। एल. के. आडवाणी की एक प्रसिद्ध टिप्पणी थी: आपसे सिर्फ झुकने को कहा गया था, मगर आप रेंगने लगे। मार्च 1977 में हुए लोकसभा चुनावों में जनता ने इंदिरा गांधी की सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया। जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत लोकतंत्र की जीत थी। इस चुनाव ने साबित किया कि भारत का मतदाता जब चाहे, तानाशाही को वोट के जरिए हरा सकता है। आज के युवाओं के लिए यह इतिहास का एक दूरस्थ अध्याय लग सकता है, लेकिन यह बेहद जरूरी है कि उन्हें यह काला अध्याय पढ़ाया और समझाया जाए। लेखक (भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति) लिखते हैं अगर सतत चौकसी न बरती जाए, तो आज़ादी सत्ताधारियों की लोलुपता का शिकार बन सकती है। न्यायपालिका और मीडिया की स्वतंत्रता की रक्षा भी उतनी ही आवश्यक है।









