आपातकाल के 50 साल: लोकतंत्र की आत्मा पर सबसे बड़ा हमला

25 जून 1975 को भारत में आपातकाल घोषित हुआ था, जिसने संविधान, नागरिक अधिकारों और संस्थाओं पर अभूतपूर्व हमला किया। यह लेख एक प्रत्यक्षदर्शी की स्मृति के माध्यम से उस अंधेरे काल को सामने लाता है।

जब लोकतंत्र शर्मसार हुआ

25 जून 1975, भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में वह तारीख है जिसे “काले दिन” के रूप में जाना जाता है। इस दिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अनुच्छेद 352 के तहत देश में राष्ट्रीय आपातकाल घोषित किया। यह फैसला उन्होंने न तो कैबिनेट की अनुमति से लिया, न ही संविधानिक प्रक्रिया का पालन किया—बल्कि एक साधारण कागज पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को भेजा गया प्रस्ताव इस बात की गवाही है कि सत्ता का दुरुपयोग किस स्तर तक पहुंच चुका था।

न्यायपालिका को मिला था झटका, नागरिक अधिकार हुए थे समाप्त

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को 1971 लोकसभा चुनाव में भ्रष्ट आचरण का दोषी पाया और पद के अयोग्य घोषित कर दिया। इसके तुरंत बाद आपातकाल लागू कर दिया गया। अनुच्छेद 19, 21 और 32 — जो नागरिक स्वतंत्रता, जीवन और न्याय की गारंटी देते हैं — को रातों-रात निलंबित कर दिया गया। जो संविधान का ‘हृदय और आत्मा’ था, वही कुचला गया।

एमआईएसए और डीआईआर के नाम पर हजारों गिरफ्तार

‘आंतरिक अशांति’ के नाम पर हजारों विपक्षी नेताओं को जेल में डाला गया, पत्रकारों की आवाज़ बंद कर दी गई, और प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी गई। लेकिन यह दमन केवल नेताओं तक सीमित नहीं रहा — जल्द ही आम जनता भी इसका शिकार बनी।

मेरे दादा पर हुआ था नसबंदी का प्रयास

मेरा अनुभव इस दौर की क्रूरता को प्रत्यक्ष रूप में दर्शाता है। मेरे 92 वर्षीय दादा, जो बीकानेर के पास गांव में गाय चराते थे, एक दिन घायल हो गए और उन्हें PBM अस्पताल ले जाया गया। वहां डॉक्टरों ने उन्हें बताया नहीं, बल्कि जबरदस्ती नसबंदी करने की योजना बना रखी थी — केवल इसलिए कि वे सरकारी लक्ष्य पूरा कर सकें। मेरे दादा अस्पताल से भाग निकले, पर लाखों लोग भाग नहीं सके। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 1975-77 के बीच एक करोड़ से अधिक लोगों की जबरन नसबंदी कर दी गई।

बीकानेर में संजय गांधी की रैली में सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग

24 मार्च 1976 को संजय गांधी बीकानेर आए। न तो उनके पास कोई संवैधानिक पद था, न वे राज्य अतिथि थे — लेकिन उनके दौरे के लिए पूरे सरकारी संसाधनों को झोंक दिया गया। मैं तब डाक और तार विभाग में टेलीफोन ऑपरेटर था। मुझे निर्देश मिला कि मंच के ठीक नीचे अस्थायी टेलीफोन लाइन बिछाई जाए — यह वह व्यवस्था थी जो केवल प्रधानमंत्री के लिए होती थी। यह उदाहरण दिखाता है कि कैसे सरकार की मशीनरी को एक व्यक्ति विशेष की सेवा में झोंक दिया गया था।

लोकतंत्र पर एक परिवार का कब्जा

आपातकाल सिर्फ प्रशासनिक या संवैधानिक संकट नहीं था, यह लोकतंत्र की आत्मा पर हमला था। पूरा सिस्टम सिर्फ गांधी परिवार की सत्ता रक्षा के लिए प्रयोग किया गया। संसद, न्यायपालिका और मीडिया — तीनों को मूकदर्शक बना दिया गया।

स्मृति से सबक की ओर

आज जब आपातकाल की पचासवीं वर्षगांठ है, हमें केवल इतिहास याद नहीं करना है — हमें यह भी सुनिश्चित करना है कि ऐसा फिर कभी न हो। संविधान की रक्षा, संस्थानों की गरिमा और नागरिक अधिकारों की स्वतंत्रता को बनाए रखना हर पीढ़ी का कर्तव्य है।

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