
“कार्यपालिका न जज हो सकती है, न ज्यूरी और न ही जल्लाद” — भारत के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ का यह बयान, जो उन्होंने मिलान में ‘बुलडोजर न्याय’ पर टिप्पणी करते हुए दिया, सिर्फ एक चेतावनी नहीं, बल्कि भारतीय न्यायपालिका के रूपांतरण की मिसाल है।
आज भारत की न्यायपालिका लोकतंत्र के तीन स्तंभों में सबसे अधिक स्वतंत्र मानी जाती है। लेकिन यह हमेशा ऐसा नहीं था।
25 जून 1975: जब संविधान कुचला गया
1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल ने न्यायपालिका, प्रेस और लोगों की स्वतंत्रता को दबा दिया। इस दौर की शुरुआत रायबरेली से हुई थी, जहां समाजवादी नेता राज नारायण ने इंदिरा गांधी की चुनावी जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा को दोषी पाया और छह साल तक चुनाव लड़ने से रोका।
इंदिरा गांधी ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, जिसने आंशिक राहत दी। इसी बीच, राज नारायण ने प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़ी ‘ब्लू बुक’ की मांग की — सुप्रीम कोर्ट ने इसके पक्ष में फैसला सुनाया और जानकारी पाने के अधिकार (Right to Information) की नींव रखी।
इसी के बाद, आर्टिकल 352 का दुरुपयोग कर देश में आपातकाल लागू कर दिया गया। 42वां संविधान संशोधन कर के न सिर्फ मौलिक अधिकार सीमित किए गए, बल्कि संविधान की आत्मा में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्द जोड़े गए।
ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला: भारतीय न्यायपालिका की सबसे काली घड़ी
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 बहुमत से कहा कि आपातकाल में जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21) भी लागू नहीं होता। केवल जस्टिस एच. आर. खन्ना ने असहमति जताई, और उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा — उन्हें मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया और उनकी जगह जस्टिस ए. एन. रे को बैठाया गया।
यह दौर दर्शाता है कि कैसे कांग्रेस सरकार ने अदालतों को अपने नियंत्रण में लाने की कोशिश की और उन्हें लोकतंत्र के प्रहरी के बजाय राजनीति का औजार बना दिया।
2024: न्यायपालिका की नई पहचान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की न्यायपालिका ने अपने पैर जमाए हैं। सुप्रीम कोर्ट सरकार के खिलाफ कई अहम मामलों में निर्णय दे चुकी है — चाहे वह इलेक्टोरल बॉन्ड्स हो, आर्टिकल 370 का समीक्षा, या सरकारी नियुक्तियों में न्यायिक हस्तक्षेप।
मोदी सरकार ने इन फैसलों का संवैधानिक सम्मान किया है, न कि विरोध या बदले की भावना से कार्य किया है। यह लोकतंत्र में विश्वास और संवैधानिक मर्यादा की मिसाल है।
आज की न्यायपालिका: स्वतंत्र और सशक्त
आज भारतीय न्यायपालिका सरकार से स्वतंत्र होकर कार्य कर रही है। यह न सिर्फ संविधान की रक्षा कर रही है, बल्कि शासन और जनता के बीच एक न्यायिक पुल के रूप में खड़ी है।
आपातकाल ने जो सिखाया, उसे याद रखना जरूरी है — ताकि हम कभी उस भूल को दोहराएं नहीं।
इतिहास याद रखो, ताकि भविष्य बचा रहे
संस्थानों को बचाने के लिए हमें इतिहास की गलतियों को समझना होगा। आज जब न्यायपालिका स्वतंत्र है, तो उसका श्रेय एक ऐसे नेतृत्व को भी जाता है जो उसकी संप्रभुता का सम्मान करता है, उसे नियंत्रित नहीं करता।









