केंद्र और राज्य सरकारों के लिए मुसीबत का सबब बन चुके कृषि कानूनों को लेकर भारतीय जनता पार्टी और मोदी सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े हैं । लंबे समय से चल रहे किसान आंदोलन के चलते यह एक मुश्किल फैसला माना जा रहा था और सरकार इसे लेकर तैयार भी नहीं थी। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले किए गए इस अहम फ़ैसले को जहां भाजपा के समर्थक सरकार का मास्टर स्ट्रोक बता रहे हैं, वहीं यह भी कहा जा रहा है कि सरकार ने किसानों और विपक्ष के भारी दबाव और चुनाव में हार के डर से यह फ़ैसला लिया है।
सवाल बड़ा यह है कि क्या मोदी सरकार के इस फ़ैसले से भाजपा को कोई फ़ायदा होगा या फिर किसानों की नाराज़गी बरकरार रहेगी?
समझना यह भी ज़रूरी है कि किसान आंदोलन का असर किन-किन चुनावी राज्यों में और इनके किन इलाक़ों में हो सकता था। कम से कम उत्तर प्रदेश के नजरिए से इसे खासतौर पर देखने की जरुरत है जहां भाजपा का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है।
उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाक़े में इस आंदोलन का तगड़ा असर था और ख़ुद मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक इस बात को कह चुके थे कि भाजपा का कोई नेता मुजफ़्फरनगर, मेरठ के गांवों में नहीं निकल सकता। भाजपा के लिए बीते दो लोकसभा चुनावों में और 2017 के विधानसभा चुनावों में सबसे बड़ी जीत पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही मिलती रही है। भाजपा के लिए दिल्ली या यूपी दोने में अपनी हनक और धमक बनाए रखने के लिए पश्चिम उत्तर प्रदेश की चाभी अपने पास ही रखना सबसे ज्यादा जरुरी है।
इसके अलावा उत्तराखंड के हरिद्वार और उधमसिंह नगर के इलाक़ों में किसान आंदोलन काफ़ी मज़बूती से चला। पंजाब में तो किसानों ने बीजेपी के नेताओं का छोटे-मोटे कार्यक्रमों में जाना तक दूभर कर दिया था। सिंघु, टिकरी और ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर भी किसान डटे हुए थे। हरियाणा में हर दिन बीजेपी और जेजेपी के नेताओं का पुरजोर विरोध हो रहा था और राजस्थान से भी विरोध की ख़बरें आ रही थीं। हरियाणा और राजस्थान की सीमा पंजाब से मिलती है।
लेकिन इन तीन चुनावी राज्यों- पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को लेकर बीजेपी और मोदी सरकार के पास साफ फीडबैक था कि यहां बड़ी सफलता हासिल करना तो दूर कुछ इलाक़े ऐसे हैं, जहां उसके उम्मीदवारों के लिए चुनाव प्रचार करना तक भारी पड़ जाएगा। इनमें से भी उत्तर प्रदेश को लेकर बीजेपी और संघ परिवार किसी भी तरह का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता था। ऐसे में ये बड़ा फ़ैसला सरकार को लेना पड़ा।
एक और अहम बात है। किसान आंदोलन जब शुरू हुआ तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान महापंचायतें शुरू हो गईं। इन महापंचायतों ने इस इलाक़े में एक वक़्त में मजबूत सियासी आधार रखने वाली आरएलडी को फिर से जिंदा होने का मौक़ा दे दिया। साल 2013 में मुज़फ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद यहां हिंदू मतों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ था और जाट मतदाता बीजेपी के साथ चले गए थे। इससे आरएलडी की कमर टूट गई थी। लेकिन किसान महापंचायतों में जाट और मुसलमान एक बार फिर साथ आए तो बीजेपी नेताओं की सांसें उखड़ने लगीं।
धीरे-धीरे विधानसभा चुनाव नज़दीक आने लगे और लखीमपुर खीरी की घटना के कारण आग में घी पड़ गया। किसानों और विपक्ष ने इसे इस क़दर मुद्दा बना लिया कि बीजेपी के लिए संभलना मुश्किल हो गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश बीजेपी के लिए सियासी रूप से बेहद उपजाऊ इलाक़ा रहा है। 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में उसने यहां शानदार प्रदर्शन किया था। लेकिन इस बार किसान आंदोलन की वजह से हालात पूरी तरह उलट हो गए थे। अब जब सरकार ने कृषि क़ानूनों की वापसी का एलान कर दिया है तो कहा जा रहा है कि बीजेपी को इससे कोई सियासी फ़ायदा हो सकता है या फिर वह डैमेज कंट्रोल कर सकती है। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट और मुसलिम बाहुल्य इलाक़ों में बीजेपी के ख़िलाफ़ नाराज़गी अभी भी दिखाई देती है।
सवाल यह है कि आरएलडी के झंडे के नीचे गोलबंद हो चुके जाटों में से क्या कुछ लोग बीजेपी के साथ चले जाएंगे। कांग्रेस ने किसान महापंचायतों के जरिये जो किसानों को अपनी ओर खींचा है या फिर वे किसान जिन्हें आंदोलन में भाग लेने के कारण पुलिस के जुल्म-जबरदस्ती का सामना करना पड़ा है, जिन पर मुक़दमे हुए हैं, क्या वे बीजेपी को माफ़ कर देंगे। ऐसा सोचना तो आसान है लेकिन ज़मीन पर ऐसा होना उतना आसान नहीं है।
बीजेपी इस इलाक़े में फिर से ध्रुवीकरण करना चाहती है। इसलिए उसने एक बार फिर कैराना में कथित पलायन के मुद्दे को उठाया है। ऐसा होना मुश्किल है कि एक साल से बीजेपी और मोदी सरकार के ख़िलाफ़ झंडा उठाए बैठा किसान उसके साथ चला जाएगा। हाल ही में बीजेपी ने अपने भाषणों में मुजफ्फरनगर के दंगों के बारे में भी खूब बातें की हैं और विपक्षी दलों खासकर सपा की भूमिका पर जमकर सवाल दागे हैं।
इस इलाक़े के किसानों का कहना है कि योगी सरकार ने उनके लिए कुछ नहीं किया। चार साल में पहली बार गन्ने का समर्थन मूल्य बढ़ाया और वह भी बहुत कम है। खेतों को चट कर रहे जानवरों को लेकर भी योगी सरकार से किसान बेहद नाराज़ हैं। डीजल महंगा होने की वजह से भी किसानों को माली नुक़सान हो रहा है। जाहिर है कि किसानों की नाराजगी तीन कानूनों से इतर भी है जिनका हल अभी निकालना बाकी है। हां इतना जरुर है कि कानूनों की वापसी ने कम से कम किसानों के रोष को ठंडा करने में थोड़ा बहुत मदद की है।
बात पंजाब की करें तो वहां बीजेपी अमरिंदर सिंह के साथ गठबंधन कर सकती है क्योंकि यह ऑफ़र अमरिंदर सिंह ने ही दिया था कि कृषि क़ानून वापस होने पर वह बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे। लेकिन किसान नेता पिछले एक साल में बीजेपी के नेताओं की दुर्गति कर चुके हैं। ऐसे में यहां अमरिंदर सिंह के साथ मिलकर बीजेपी जीत हासिल कर पाएगी, ऐसा होना बेहद मुश्किल दिखता है। वैसे भी पंजाब में बीजेपी कोई सियासी ताक़त नहीं है और अमरिंदर सिंह कांग्रेस से बाहर आने के बाद कुछ बड़ा कर जाएंगे, इसमें शक है।
उत्तराखंड के तराई वाले इलाक़े में भी सिख और किसान समुदाय बीजेपी का लगातार विरोध कर रहा था। मगर इस राज्य में किसानों का मुद्दा कभी चुनावी सवाल बना नहीं है और कमोबेश यहां रोजगार, विकास के मुद्दे हावी रहते हैं। किसान आंदोलन में भी इस राज्य के मामूली से हिस्से की ही भागीदारी दिखाई दी है।
सबसे बड़ा सवाल है कि उत्तर प्रदेश में कानून वापसी के बाद क्या होगा। फिलहाल तो किसान अपने कदम वापस लेने के मूड में नहीं दिखते हैं। किसानों ने अब अपने और भी कई मुद्दे आंदोलन के साथ जोड़ दिए हैं। कानून वापसी के बाद लखनऊ में हुयी महापंचायत में किसानों ने बिजली संशोधन बल की वापसी की मांग भी उठा दी है। बेरोजगार नौजवानों और मजदूरों को भी किसान अपने साथ जोड़ रहे हैं। जाहिर है कि महज कृषि कानूनों की वापसी ही भाजपा के लिए काफी नहीं है। फिर से यूपी और उसके बाद दिल्ली की सत्ता की राह इतनी आसान नहीं है। कभी इम्तेहान और भी कई हैं जिनसे होकर भाजपा को गुजरना है।