उत्तर प्रदेश में इन दिनों जातियों और मूर्तियों को लेकर घमासान मचा है। जैसे-जैसे विधानसभा चुनावों की तारीखें करीब आ रही हैं, जंग तेज हो रही है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और प्रमुख विपक्षी दल इस जंग के अहम किरदार हैं। दोनो दलों के जातीय सम्मेलन धुंआधार तरीके से हो रहे हैं, बांहे चढ़ाई जा रहीं और खुद को जाति का असली सेवक व हितैषी बताया जा रहा है। दूसरी ओर मूर्तियों की सियासत भी जातियों को तुष्ट करने के लिए तेज हुयी है।
सबसे पहले बात मूर्तियों की करें तो उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले मूर्तियों की सियासत तेज़ हो गई है। इन मूर्तियों का सीधा कनेक्शन जातीय राजनीति से है, इसलिए राजनीतिक दल इन्हें लगा भी रहे हैं और इसका प्रचार भी कर रहे हैं। ब्राह्मणों को लुभाने के लिए जहां भगवान परशुराम की मूर्तियां लगाई जा रही हैं, वहीं निषाद वोटर्स को अपने पाले में लाने के लिए पूर्व सांसद फूलन देवी की प्रतिमा लगाने की मांग की गई है।
बीजेपी नेताओं ने परशुराम की 16 फ़ीट ऊंची प्रतिमा बनाई है और यह प्रयागराज में लगने जा रही है। बीजेपी नेताओं का कहना है कि उत्तर प्रदेश के सभी 75 जिलों में ऐसी मूर्तियां लगाए जाने की योजना है और ऐसे कार्यक्रमों में बीजेपी के नेताओं के साथ ही साधु-संतों को भी बुलाया जाएगा।इन कार्यक्रमों में आने वाले लोगों को मोदी और योगी सरकार की उपलब्धियों के बारे में बताया जाएगा।
चुनावी अखाड़े में बीजेपी से दो-दो हाथ कर रही एसपी ने लखनऊ के जनेश्वर पार्क में परशुराम की 108 फ़ीट ऊंची प्रतिमा लगाने का एलान किया है। यह प्रतिमा जयपुर में तैयार की जा रही है और 2022 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कभी भी इस प्रतिमा को लगाया जा सकता है।पार्टी के प्रबुद्ध प्रकोष्ठ ने कहा था कि वह उत्तर प्रदेश के हर जिले में भगवान परशुराम और स्वतत्रंता आंदोलन में शहादत देने वाले मंगल पांडेय की मूर्ति लगवाएगी।
बीएसपी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सम्मेलनों का आयोजन कर चुकी है। 2007 में उसे इस दांव का फ़ायदा मिला था और प्रदेश में पहली बार उसने अपने दम पर सरकार बनाई थी। इसके जवाब में बीजेपी भी प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन कर रही है।
कानपुर के बिकरू कांड के कुख्यात बदमाश विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद विपक्षी राजनीतिक दलों के ब्राह्मण समुदाय के नेताओं ने बीजेपी को निशाने पर ले लिया था। 24 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में करीब 12 प्रतिशत ब्राह्मण हैं। इसलिए सभी दल अब इस समुदाय को रिझाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। देखना होगा कि बीजेपी का परंपरागत वोटर माने जाने वाले ब्राह्मण किस राजनीतिक दल की नाव को सहारा देते हैं।
निषाद मतदाताओं के सहारे राजनीति करने वाली पार्टियां पूर्व सांसद फूलन देवी की प्रतिमा लगा रही हैं। निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद ने मांग की है कि गोरखपुर में फूलन देवी की प्रतिमा लगाई जाए। बिहार में सक्रिय विकासशील इंसान पार्टी ने एलान किया है कि वह उत्तर प्रदेश में निषाद मतदाताओं के घरों में फूलन देवी की प्रतिमा बांटेगी। विकासशील इंसान पार्टी इस बार उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने जा रही है।
पूर्वांचल में निषाद मतदाताओं की अच्छी-खासी संख्या है और इन्हें अपने पाले में लाने के लिए ही बीजेपी ने निषाद पार्टी के साथ गठबंधन किया है।गोरखपुर में निषाद मतदाताओं की तादाद 15 फ़ीसदी से ज़्यादा है। इसके अलावा महाराजगंज, जौनपुर और पूर्वांचल के कुछ और इलाक़ों में भी निषाद वोटरों का अच्छा प्रभाव माना जाता है। पूर्वांचल में इस समुदाय की आबादी 14 फ़ीसदी तक मानी जाती है।
मोटे तौर पर यह माना जा रहा है कि वर्ष 2022 विधानसभा चुनाव में कुर्मी, कोइरी, राजभर, प्रजापति, पाल, अर्कवंशी, चौहान, बिंद, निषाद, लोहार जातियां सत्ता की चाभी की भूमिका में नजर आएंगी। इनकी महत्ता को भांपते हुए सभी प्रमुख दल इन जातियों को साधने में जुटे हैं। लगभग 32 फीसदी वोट का मालिकाना हक रखने वाली इन जातियों को साधने की रेस में भाजपा और सपा अन्य दलों से आगे हैं। भाजपा इनकी ताकत को अपने से जोड़े रखने की मुहिम में है जबकि सपा इन्हें फिर से जोड़ने की कोशिश में जुटी है।
वैसे ये जातियां हैं जो किसी एक दल से बंधकर नहीं रही हैं। चुनाव दर चुनाव इनकी पसंद बदलती रही है। इनकी गोलबंदी चुनाव में जिसकी तरफ होती है वह सत्ता में आते हैं। यही कारण है कि इनके क्षत्रपों और राजनीतिक दलों को साधने की सीधी होड़ भाजपा, सपा, बसपा, कांग्रेस जैसे बड़े दलों में लगी है।
देखा जाए तो वर्ष 2014 लोकसभा चुनाव से कुर्मी, कोइरी, राजभर, प्रजापति, लोहार, निषाद आदि जातियां भाजपा के साथ गोलबंद हुई थीं। फिर वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव में भी ये जातियां भाजपा के साथ थीं, जिसकी बदौलत भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई। इन जातियों के खिसकने से ही पहले बसपा और फिर सपा का राज्य की सत्ता से सफाया हुआ था। मझवारा बिरादरी को साथ जोड़ने में जुटे डा. संजय निषाद अभी तक तो भाजपा के साथ खड़े हैं। कुर्मी वोटों की राजनीति करने वाली केंद्रीय राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल (एस) भी भाजपा के साथ हैं।
2019 लोकसभा चुनाव में राजभर बिरादरी का वोट कुछ हद तक भाजपा से कटा था। सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने लोकसभा की सीटों पर प्रत्याशी उतार कर इस बिरादरी के वोट को अपने पक्ष में किया था। राजभर के गठबंधन के साथ बाबू सिंह कुशवाहा की पार्टी का साथ काफी समय से हैं और दोनो के सपा के साथ जाने पर कुशवाहा बिरादरी भी कुछ हद तक उसके पक्ष में जा सकती हैं। राजभर अब सपा के साथ खड़ें हैं और प्रदेश भर में घूम घूम कर भाजपा का सफाया करे की बात कर रहे हैं। कुछ समय पहले राजभर ने 10 छोटे दलों को जोड़ कर भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाया था और आज की तारीख में इस गठबंधन के ज्यादातर दल सपा के साथ हैं या जाने को तैयार हैं।
ओबीसी में ही शामिल बंजारा, बारी, बियार, नट, कुजड़ा, नायक, कहार, गोंड, सविता, धीवर, आरख जैसी बहुत कम आबादी वाली जातियों की गोलबंदी भी चुनावी नतीजों को प्रभावित करेगी। यह वह जातियां हैं जिन्हें पिछड़ों में कुछ बड़ी आबादी वाली जातियां अपनी उपजातियां भी बताती हैं। इनकी आबादी आधा फीसदी से लेकर डेढ़ फीसदी के बीच है।
गौरतलब है कि वर्ष 2007 में जब मायावती सत्ता में आईं। उस चुनाव में बाबू सिंह कुशवाहा, स्वामी प्रसाद मौर्य, राम अचल राजभर, सुखदेव राजभर के साथ ही पटेल, चौहान आदि बिरादरियों के तमाम मजबूत नेता उनके साथ थे। ब्राम्हण व क्षत्रित समाज के भी तमाम बड़े नेता उस समय बसपा के साथ में थे। वहीं जब सपा वर्ष 2012 में अखिलेश जब सत्ता में आए उस समय उनके साथ भी इन बिरादरियों के तमाम बड़े नेता जुड़े थे। पटेल, चौहान, कुशवाहा आदि बिरादरियों के बड़े नेता सपा के साथ खड़े हो गए थे।
आज की हालात तो ये है कि सपा-भाजपा में से कोई भी दल यह बात पक्के तौर पर नहीं कह सकता है कि पिछड़ी जातियों का एकमुश्त वोट उसे मिलने जा रहा है। पिछड़ी जातियां अभी खुद अपना समर्थक दल नहीं तय कर सकी हैं हां कुच के नेताओं ने जरुर पाला चुन लिया है। पिछड़ों के इस असमंजस को भांपते हुए दलों में उनको लुभाने की कवायद तेज हो गयी जो आने वाले कुछ महीनों तक जारी रहेगी।