
Rajneesh Gangwar FIR. उत्तर प्रदेश के बरेली ज़िले से एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस छिड़ गई है। इस बार केंद्र में हैं राजकीय शिक्षक और कवि रजनीश गंगवार, जिनकी एक व्यंग्यात्मक कविता पर FIR दर्ज होने के बाद उन्होंने दो टूक कहा है अगर मेरी कविता पर केस हो सकता है, तो फिर ओपी राजभर जैसे नेताओं के भड़काऊ बयानों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती?
रजनीश गंगवार की कविता कथित तौर पर कांवड़ यात्रा और उसकी सामाजिक झलकियों पर कटाक्ष करती है, जिसे कुछ संगठनों ने आस्था पर हमला’ बताते हुए आपराधिक मामला दर्ज करवा दिया। लेकिन गंगवार ने स्पष्ट किया कि उनका उद्देश्य किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाना नहीं, बल्कि समाज में बढ़ते दोहरे मापदंडों पर व्यंग्य करना था।
क्या बोले रजनीश गंगवार?
अपनी प्रतिक्रिया में रजनीश गंगवार ने न केवल FIR पर सवाल उठाया, बल्कि राजनीतिक संरक्षण में फैल रही भड़काऊ भाषा पर भी जमकर निशाना साधा। मेरी एक कविता पर केस हो जाता है, लेकिन जिन नेताओं की जुबान ज़हर उगलती है, उन पर कानून मौन क्यों है? ओपी राजभर लगातार समाज को तोड़ने वाले बयान दे रहे हैं, क्या उनके लिए कानून अलग है? कविता लिखना अपराध है, लेकिन नफ़रत फैलाना राजनीति का हिस्सा बन चुका है, यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।
शेर से किया तंज, गूंजा सोशल मीडिया
रजनीश गंगवार ने अपनी प्रतिक्रिया में एक शेर के ज़रिए सत्ताधारी सोच और सिस्टम पर गहरा कटाक्ष किया, जो अब सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो रहा है-
“लड़ना है तो ढूंढ बराबर का आदमी,
क्यों रास्ता रोके खड़ा है फकीर का…”
इस शेर के ज़रिए उन्होंने सत्ता से जुड़े दमन और असमान व्यवहार पर हमला बोला है, जो सत्ता और साधुता की नकली व्याख्या पर भी सवाल उठाता है।
कविता का विवाद क्या था?
कांवड़ यात्रा के दौरान दिखाई देने वाले कुछ सामाजिक विडंबनों पर गंगवार ने एक हास्य-व्यंग्य रचना लिखी थी। इसमें उन्होंने कांवड़ियों के व्यवहार, सड़क पर प्रदर्शन, और सोशल मीडिया रील संस्कृति पर कटाक्ष किया था। कविता के वायरल होते ही कुछ धार्मिक संगठनों ने इसे अपमानजनक बताते हुए पुलिस में शिकायत दी, जिसके आधार पर आईटी एक्ट व अन्य धाराओं में FIR दर्ज की गई।
दोहरा मापदंड या अभिव्यक्ति का संकट?
रजनीश गंगवार का गुस्सा केवल अपनी FIR तक सीमित नहीं है, बल्कि उन्होंने इस बहाने समाज और सरकार के दोहरे मापदंडों पर तीखा सवाल खड़ा किया है। उनका तर्क है कि अगर एक शिक्षक द्वारा लिखी गई कविता पर कानून इतनी जल्दी हरकत में आ जाता है, तो फिर जनता को भड़काने वाले राजनीतिक बयानों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती?
उन्होंने कहा जब सत्ता से जुड़े लोगों की भाषा ज़हर उगलती है, तब कानून मौन क्यों हो जाता है? क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी सिर्फ सत्ता समर्थित लोगों के लिए है?
क्या है आगे की राह?
इस मामले ने राजनीतिक और वैचारिक गलियारों में नई बहस छेड़ दी है, क्या एक कविता से धार्मिक भावना आहत हो सकती है? और अगर हां, तो फिर नेताओं की भाषणबाज़ी क्यों छूटती रहती है? इस सवाल का जवाब अभी कानून और लोकतंत्र दोनों को देना बाकी है।









