पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित का ब्लॉग – ‘भारतीय दर्शन में ही निहित है विश्व शांति और मानवता के अचूक सुत्र’

विश्व मानवता तनावग्रस्त है. रूस यूक्रेन युद्ध का प्रभाव विश्व व्यापी है. तनाव का उपचार भारतीय चिंतन में है. संस्कृति में है. समूचे विश्व को आनंदित करने और श्रेष्ठ मनुष्य - आर्य बनाना वेदों का उद्देश्य है. भारतीय ज्ञान परंपरा में वेदों का सुप्रतिष्ठित आदर रहा है. कृतज्ञ मानवता ने वेदों को भगवान की वाणी कहा है. वेद के निंदक यहां नास्तिक कहे जाते हैं और वेदों को मानने वाले आस्तिक.

विश्व मानवता तनावग्रस्त है. रूस यूक्रेन युद्ध का प्रभाव विश्व व्यापी है. तनाव का उपचार भारतीय चिंतन में है. संस्कृति में है. समूचे विश्व को आनंदित करने और श्रेष्ठ मनुष्य – आर्य बनाना वेदों का उद्देश्य है. भारतीय ज्ञान परंपरा में वेदों का सुप्रतिष्ठित आदर रहा है. कृतज्ञ मानवता ने वेदों को भगवान की वाणी कहा है. वेद के निंदक यहां नास्तिक कहे जाते हैं और वेदों को मानने वाले आस्तिक.

वर्तमान हिन्दू धर्म वैदिक धर्म का विस्तार है. वेदों में सांसारिक जीवन को माधुर्य बनाने के सूत्र हैं. विभिन्न आधिभौतिक प्रश्नों के समाधान भी हैं. तत्व मीमांसा व ज्ञान मीमांसा भी है. वैदिक संहिता के बाद में ब्राह्मण ग्रंथों की रचना हुई. ब्राह्मण ग्रंथ वैदिक सूक्तों के आध्यात्मिक रहस्यों की व्याख्या है. इसी के साथ आरण्यक ग्रन्थ भी हैं. शब्द ब्राह्मण का अर्थ ब्राह्मण वर्ण या जाति से नहीं है. दुर्भाग्य से ब्राह्मण शब्द वर्ण या जाति के लिए रूढ़ हो गया है. ब्राह्मण ग्रंथों में वैदिक ज्ञान का आशय है.

आचार्य बलदेव उपाध्याय ने ‘वैदिक साहित्य का इतिहास‘ में ब्राह्मण साहित्य के दो प्रमुख विषय विधि और अर्थवाद बताए हैं. वैदिक भाष्यकार भट्ट भाष्कर ने वैदिक मन्त्रों के भाष्य, आशय, कर्मकाण्ड व विनियोग को ब्राह्मण ग्रंथों का विषय बताया है. डा० कपिल देव द्विवेदी ने ‘वैदिक दर्शन‘ (पृष्ठ 6) में लिखा है, ”ब्राह्मण ग्रंथों में वेद की विस्तृत व्याख्या है. ये टीका – ग्रन्थ समझे जाने चाहिए.” ब्राह्मण ग्रंथों में इतिहास है. वैदिक परंपरा और ज्ञान का विस्तार है. दुर्भाग्य से आधुनिक समाज ने इन्हें काल वाह्य की स्थिति तक उपेक्षित किया है.

वैदिक साहित्य वैश्विक आनंद का भंडार है. ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चार वेद हैं. अथर्ववेद इतिहास और तत्कालीन दर्शन व विज्ञान की सामग्री से भरा पूरा है. ब्राह्मण ग्रन्थ हैं. आरण्यक हैं, उपनिषद हैं. इसके बाद पुराण हैं. ऐसा विशाल वांग्मय दुनिया की किसी भी सभ्यता संस्कृति में नहीं मिलता. हिन्दुत्व में ये सब समाहित है. डा० राधाकृष्णन ने ‘धर्म और समाज‘ (पृष्ठ 106) में बताया है ”हिन्दुत्व विचार और महत्वकांक्षाओं का एक सजीव और स्वयं जीवन की गतिविधियों के साथ गति करता हुआ उत्तराधिकार है. एक ऐसा उत्तराधिकार जिसमे भारत की प्रत्येक जाति ने अपना विशिष्ट सुस्पष्ट योग दिया है. इसकी संस्कृति में एक खास तरह की एकता है.”

यहां उत्तराधिकार पर ध्यान देना जरूरी है. समाज अपने सदस्यों के सचेत कर्मों के परिणाम होते हैं. आधुनिक समाज पूर्ववर्ती समाज का फल हैं और पूर्ववर्ती समाज भी अपने पूर्ववर्ती समाज का प्रतिफल. हिन्दुत्व का श्रेयस वैदिक समाज से लेकर आधुनिक समाज तक व्याप्त है. यह हम सबको उत्तराधिकार में मिला है. इसका संरक्षण व संवर्द्धन हम सबका कर्तव्य है. डा० राधाकृष्णन ने आगे कहा है कि ”समाज की वर्तमान दशा को सुधारने के लिए, समय के महत्व के उपयुक्त जीवन को नया रूप देने के लिए हमे इसकी आत्मा को, जो हमें उत्तराधिकार से अपने खून में मिली है, उन अलौकिक आदर्शों को, उन वस्तुओं को, जो हमारे अस्तित्व की गहराइयों में चिरंतन सम्भावनाओं के रूप में हैं, नए सिरे से खोज निकालना होगा. हमारी मान्यताएं नहीं बदलती, परन्तु उन्हें व्यक्त करने के ढंग और साधन बदल जाते हैं. भारत आध्यात्मिक मान्यताओं को अन्य मान्यताओं की अपेक्षा कही अधिक महत्व देता है.”

ब्राह्मण ग्रंथों पर अंधविश्वासी कर्मकाण्डी होने के आरोप कुछ विद्वानों ने भी लगाए हैं. वे उपनिषदों को ब्राह्मण ग्रंथों से भिन्न मानते हैं. सत्य ऐसा नहीं है. सत्य यह है कि अधिकांश अपनिषदें ब्राह्मण ग्रंथों का ही भाग हैं. सबसे बड़े आकार वाली वृहदारण्यक उपनिषद् शतपथ ब्राह्मण का ही एक भाग है. ऐतरेय ब्राह्मण का एक भाग ऐतरेय उपनिषद् है. कौशितकी ब्राह्मण का आध्यात्म भाग कौशितकी उपनिषद् के रूप में लोकप्रिय हुआ. कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मणों से कठोपनिषद्, तैत्तिरीय उपनिषद्, श्वेताश्वोतरोपनिषद् अलग हो गए.

सामवेद के ब्राह्मणों से केन और छान्दोग्य उपनिषदें निकलीं. तर्क प्रतितर्क, विचार – विमर्श और ब्रह्म सत्य आदि विषय ब्राह्मण ग्रंथों से निकल कर उपनिषद् साहित्य का अंग बने. सबसे प्राचीन ईशावास्योपनिषद् है. यह स्वतंत्र रचना नहीं है. यह यजुर्वेद का 40वां अध्याय है. भारतीय दर्शन का ब्रह्म संपूर्णता है. ब्रह्म सर्वत्र है. भीतर, बाहर, ऊपर, नीचे, दांए, बांए, सामने, पीछे ब्रह्म ही है. इस तरह हम सब ब्रह्म है – अहं ब्रह्मास्मि. ऋग्वेद में कहीं कहीं ब्रह्म का अर्थ स्तुतिपरक मंत्र भी है. इन्द्र से कहते हैं, ‘‘हे इन्द्र सब मित्र मरुतों ने ब्रह्माणि – स्त्रोतों से तेरे बल को बढ़ाया‘‘. ब्रह्माणः ज्ञानी हैं. वेदों में ब्रह्म को सृष्टि का कर्ता बताया गया है. यजुर्वेद में ‘ब्रह्म सर्वोच्च सत्ता है, सृष्टि में प्रथमा है.‘ कह सकते हैं कि वह सदा से है. अथर्ववेद (5-2-1) में ‘ब्रह्म ज्येष्ठ श्रेष्ठ सत्ता हैं‘. अथर्ववेद (13-3-17) के अनुसार ‘‘ब्रह्म एक अद्वितीय ज्योति पुंज है. वही एक अनेक रूपों में सर्वत्र प्रकाशित हो रहा है – यदेकं ज्योतिर बहुधा विभाति‘‘. यह यदेकं ऋग्वेद का एकं सद् है. यही अष्टावक्र का ज्योतिर्एकं है. एक ज्योति है. प्रकाशों का स्रोत.

हिन्दू जीवन रचना विश्व परिवार के प्रति आदर्शोनुमुख रही है. यह कर्मकाण्डों की जड़ संहिता नहीं थी. यह काल संगत को जोड़ने व काल वाह्य को छोड़ने में गतिशील रही है. ब्राह्मण ग्रंथों में वर्णित मंत्र विनियोग और कर्मकाण्ड भी जड़ नहीं रहे. उनकी व्याख्या और आलोचना भी होती रही है. मुक्त चिंतन हिन्दुत्व का मूलाधार है. डा० राधाकृष्णन ने ‘धर्म और समाज‘ (पृष्ठ 130) में बताया है, ‘‘वैदिक आर्यों के पास कोई मंदिर नहीं थे. वे प्रतिमाओं का उपयोग करते थे.” उन्होंने लिखा है, ‘‘मंदिरों और मूर्ति – पूजा पर विभिन्न ग्रंथ हिन्दू धर्म के वैदिक वाद से आगे बढ़ आने के बाद ही रचे गए. फिर भी वैदिक मंत्रों का प्रयोग किया जाता था और ऋषियों की प्रेरणामयी प्रतिभा ने वैदिक और वैदिक – भिन्न तत्वों को मिलाकर एक कर दिया.

मंदिर हिन्दू धर्म व हिन्दू मन के प्रिय रहे हैं. डा० राधाकृष्णन ने लिखा है, ‘‘मंदिर हिन्दू धर्म के दृश्य प्रतीक हैं. वे स्वर्ग के प्रति पृथ्वी की प्रार्थनाएं हैं. वे एकांत और प्रभावोत्पादक स्थानों पर बने हुए हैं. हिमालय के महिमामय और पावन तुंग शिखर महान मन्दिरों के लिए स्वाभाविक पृष्ठभूमि हैं. ब्रह्म मुहूर्त में उपासना के लिए नदी – तीर पर जाने की प्रथा का पालन शताब्दियों से होता चला आ रहा है. विश्वास और रहस्य से युक्त मंदिरों के भवनों का सौन्दर्य, असंगता तथा विस्मय का भाव जगाने वाली धुंधली ज्योतियां, गान और संगीत, मूर्ति और पूजा, इन सबमें व्यंजना की (संकेत करने की) शक्ति है.

सब कलाओं, वास्तु कौशल, संगीत, नृत्य, कविता, चित्रकला और मूर्ति शिल्प का प्रयोग इसलिए किया जाता है कि हम धर्म की उस शक्ति को अनुभव कर लें, जिसकी परिभाषा ही नहीं की जा सकती और जिसके लिए कोई भी कला यथेष्ट वाहन नहीं है. जो लोग पूजा में भाग लेते हैं, वे उस ऐतिहासिक हिन्दू अनुभव और उन प्रगाढ़ आध्यात्मिक शक्तियों से मिलकर एक हो जाते हैं, जिन्होंने हमारे आनुवंशिक उत्तराधिकार के सर्वोत्तम अंश को गढ़ा है.‘‘ सबके प्रति आत्मभाव भारतीय चिंतन की विशेषता है. विश्व परिवार है. परिवार भाव ही विश्व को सुंदर तनाव रहित बना सकता है.

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