कैसा होना चाहिए नालंदा विश्वविद्यालय का स्वरूप ?

ब्लॉग : 1193 को आक्रांता मुहम्मद गोरी के गुलाम सेनापति बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय पर आक्रमण कर जला डाला था l तत्कालीन दुनिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय तीन महीनें तक धू धू कर जलता रहा l उसकी 90 लाख दुर्लभ हस्तलिखित पुस्तकें जलकर खाक हो गई l पुस्तकें ही नहीं जली अपितु भारत की प्राचीन समृद्ध ज्ञान परंपरा भी जलकर राख हो गई जो पूरी दुनिया को राह दिखाती थी l आक्रमण में तमाम बौद्ध भिक्षु और छात्र मारे गए l तत्कालीन कुलपति ने तिब्बत भागकर अपनी जान बचाई l

खिलजी को इतने भर से संतोष नहीं हुआ उसने आगे बढ़कर भारत के दूसरे बड़े विश्वविद्यालय विक्रमशिला विश्वविद्यालय जिसे राजा धर्मपाल ने बनवाया था को भी जलाकर नष्ट कर दिया l खिलजी ने ऐसा इस्लाम के वर्चस्व को स्थापित करने की झख में किया था l वह भारत की समृद्ध ज्ञान परंपरा के चलते हीनभावना से ग्रसित था जिसके कारण वह नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों से ईर्ष्या करता था l

कहावत है कि इतिहास अपने आप को बार बार दोहराता है l बिहार के ऐतिहासिक स्थल राजगीर में जहां बौद्धों की प्रथम संगीति हुई थी l प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते 19 तारीख को आक्रमण के 831 साल बाद नालंदा विश्वविद्यालय के नए कैंपस का उद्घाटन किया l इसके साथ ही लंबे इंतजार के बाद नालंदा विश्वविद्यालय का केंद्र एक बार फिर से अपने पुराने स्वरूप में लौट रहा है l इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाले समय में नालंदा विश्वविद्यालय एक बार फिर से शिक्षा, ज्ञान और सांस्कृतिक चेतना का वैश्विक केंद्र बनने वाला है l नालंदा यूनिवर्सिटी का नया कैंपस प्राचीन खंडहरों के करीब ही बनाया गया है l हालांकि इसका विस्तार प्राचीन यूनिवर्सिटी से कहीं अधिक है l परिसर का विस्तार तो महत्वपूर्ण है ही इसके अलावा आधुनिक सुविधा से यह सुव्यवस्थित होना चाहिए l

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के पुत्र सम्राट कुमारगुप्त ने 450 ईस्वी में नालंदा यूनिवर्सिटी की स्थापना की थी, इसे दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय कहा जाता है l इतिसासकारों के अनुसार इस यूनिवर्सिटी में 300 कमरे, 7 बड़े कक्ष और अध्ययन के लिए 9 मंजिला एक विशाल पुस्तकालय था l यहां एक समय में 10,000 से अधिक छात्र और 2,700 से अधिक शिक्षक अध्ययन और अध्यापन करते थे l छात्रों का चयन उनकी मेधा के आधार पर कड़ी प्रवेश परीक्षा से होता था जिनमें से 1/10 छात्रों को ही प्रवेश मिल पाता था l प्रवेश पाने वाले छात्रों के लिए शिक्षा, रहना और खाना निःशुल्क था l इस विश्वविद्यालय में केवल भारत से ही नहीं, बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, ईरान, ग्रीस, मंगोलिया आदि देशों से भी छात्र आते थे l प्रवेश के लिए कड़ी परीक्षा का तो आयोजन हो ही इसके साथ

छात्रों का चरित्र परीक्षण भी हो l हर छात्र की अलग रुचि और मौलिक प्रवृत्ति होती है जब इसी के अनुरूप शिक्षण होता है तो संपूर्ण ऊर्जा खर्च होती है और सर्वांगीण विकास होता है l प्रवेश के समय विश्वविद्यालय में इस तथ्य का ध्यान अवश्य रखना होगा l आश्चर्यजनक संयोग ही है कि भारत के अलावा नालंदा विश्वविद्यालय में जिन 17 अन्य देशों की भागीदारी की है उनमें ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, भूटान, ब्रुनेई दारुस्सलाम, कंबोडिया, चीन, इंडोनेशिया, लाओस, मॉरीशस, म्यांमार, न्यूजीलैंड, पुर्तगाल, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, श्रीलंका, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं l इन देशों में से ज्यादातर देशों के छात्र प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन करने आते थे l

सरकार की मंशा के मुताबिक सरकार वैसा ही वैभव दिलाना चाहती है जैसा 800 साल पहले इस विश्वविद्यालय का हुआ करता था l जो सराहनीय कदम है सरकार विश्वविद्यालय को शिक्षा का नया केंद्र बनाना चाहती है l आधुनिक विश्वविद्यालय में भी एक विशाल लाइब्रेरी का निर्माण किया जा रहा है l लाइब्रेरी का स्वरूप ऐसा हो कि क्लिक करने के साथ ही मनचाही पुस्तक स्क्रीन पर आ जाए जिससे छात्र प्राचीन एवं आधुनिक ज्ञान विज्ञान को प्राप्त करने में सरलता हो l

कभी प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट्ट यहां प्रोफेसर हुआ करते थे l उन्होंने अपने ज्ञान से नालंदा विश्वविद्यालय का गौरव बढ़ाया था तथा छात्र के रूप में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 6 सालों तक 637 – 642 ईसवी तक छात्र के रूप में अध्ययन किया था l कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन ने यहां अध्ययन ही नहीं किया था अपितु सम्राट बनने पर सरंक्षण भी दिया था l हर्षवर्धन ने नालंदा विश्वविद्यालय के सरंक्षण के लिए 100 ग्रामों से होने वाली आय को विश्वविद्यालय के खर्चे हेतु दान में दे दिया था l

आज भी जरूरत है सरकार के साथ साथ समाज के भी जिम्मेदार लोग विश्वविद्यालय की प्रगति के लिए आगे आये तो निश्चित तौर पर विश्वविद्यालय को आधुनिक आर्यभट्ट जैसे विद्वान और हर्षवर्धन जैसे शासक प्राप्त हो सकेंगे l फिर विश्वविद्यालय की खोई हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त करने में देर नहीं लगेगी l निश्चित तौर फिर से भारत को विश्वगुरु बनने से कोई रोक नहीं पाएगा l भारत विश्वगुरू की पदवी पर अपनी ज्ञान संपदा और संस्कृति के चलते स्थापित हुआ था l क्योकि ज्ञान संपदा ही भौतिक, आध्यात्मिक उन्नति का आधार होता है l हा इतना ध्यान अवश्य देना है जो नीव और सरंचना प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय में प्राचीन और नूतन ज्ञान के समन्वय की थी उसे बनाये रखना होगा क्योकि आधुनिक ज्ञान विज्ञान से ही शोध को बढ़ावा मिलता है l नवाचार, प्रायोगिक शिक्षा जैसे नूतन आयाम भी विश्वविद्यालय शिक्षा के जरूरी अंग होने चाहिए l

एरोस्पेस, सूचना विज्ञान, अंतरिक्ष अनुसंधान, समुद्री विज्ञान, परमाणु ऊर्जा, एआई जैसे विषयों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए l वर्तमान में उच्च चरित्र वाले शिक्षकों की अत्यन्त कमी है जो समाज की रीढ़ होते है, विश्वविद्यालय में उनके निर्माण की व्यवस्था होनी चाहिए l शोध आधारित योग, आयुर्वेद, अध्यात्म का आधुनिक चिकित्सा से समन्वय कर नूतन स्वास्थ्य विज्ञान का विकास किया जाना चाहिए l आधुनिक ज्ञान विज्ञान के चलते वर्तमान समय में विश्व के देशों की दूरियां बेमतलब हो चुकी है देशों के बीच परस्पर निर्भरता बढ़ी है ऐसे में अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों का महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है l कूटनीतिक ज्ञान की उपयोगिता की आवश्यकता बढ़ी गई है ऐसे में विदेश नीति की शिक्षा की व्यवस्था भी विश्वविद्यालय में होनी ही चाहिए l औद्योगिकरण और उद्यम शीलता के अभाव में कोई भी देश प्रगति नहीं कर सकता है l उद्योगधंधों की स्थापना का प्रशिक्षण विश्वविद्यालयी शिक्षा का अंग होना चाहिए l ईमानदार नौकरशाहों के सृजन की व्यवस्था भी होनी चाहिए l

विद्वानों का मानना है कि यदि अगर नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय नष्ट नहीं हुए होते तो भारत को सैकड़ो सालों तक गुलामी नहीं झेलनी पड़ती l यदि किन्ही कारणों वश दासता आती भी तो वह शक, हूणों जैसी होती क्योकि तब इन्ही विश्वविद्यालयों से चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य, विक्रमादित्य , हर्षवर्धन, मिहिरभोज, पुष्यमित्र शुंग, पेशवा बाजीराव जैसे योद्धा, विद्वान पैदा होते जो दासता की बेड़ियों को शीघ्र ही तोड़ डालते l

लेखक – मुनीष त्रिपाठी,पत्रकार, इतिहासकार और साहित्यकार है

Related Articles

Back to top button