दलितों वंचितों और शोषितों की प्रखर आवाज एवं जनप्रिय राजनेता कांशीराम का जन्म 15 मार्च 1934 को ख़्वासपुर, रोपड़, पंजाब में एक रैदासी सिख परिवार में हुआ था। त्याग और निष्ठा की प्रतिमूर्ति कांशीराम ने दलित उत्थान के लिए अनगिनत योगदान दिए। 1970 के दशक में कांशीराम ने दलितों को तत्कालीन बहुचर्चित बहुजन आंदोलन से जोड़ना शुरू किया। वर्तमान की बहुजन समाज पार्टी इन्हीं महापुरुष के प्रयासों का नतीजा है।
सादगी के प्रतिक कांशीराम (Kanshi Ram) ने दलित, शोषित कल्याण के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया और वास्तव में वो जमीनी नेता थे जिन्होंने संघर्ष के दम पर बहुजन आंदोलन को राजनैतिक दल का स्वरुप दिया और शोषितों-वंचितों की सामाजिक और आर्थिक दशा- दिशा तय करने के लिए सियासत की धुरी को साधा। शायद यही कारण था कि उन्हें बसपा (BSP) सुप्रीमो कहा जाता था।
बहुजन आंदोलन से राजनैतिक पटल पर नया सियासी समीकरण रचने के लिए उभरी बहुजन समाज पार्टी के सिद्धांत बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय से प्रेरित थे। लिहाजा, समाज के दलित और शोषित तबकों को बहुजन समाज पार्टी में एक आशा की किरण नजर आई। हालांकि कालांतर में तमाम राजनैतिक कारणों और प्रतिक्षण बदलती परिस्थितियों के चलते कांशीराम के दल ने अपना जनाधार खोना शुरू कर दिया और आज स्थिति यह है कि दलितों, शोषितों के बीच बहुजन समाज पार्टी अपनी लोकप्रियता लगभग पूरी गंवा चुकी है।
उदहारण के तौर पर देखें तो पाएंगे कि उत्तर प्रदेश में इस साल हुए विधानसभा चुनाव (UP Assembly Elections 2022) में बहुजन समाज पार्टी का प्रदर्शन इस बात की पुष्टि करता है। BSP को केवल एक सीट मिलना इस बात का संकेत है कि कहीं ना कहीं पार्टी कांशीराम के मूल सिद्धांतों से भटक चुकी है। बहुजन आंदोलन के परिणामस्वरूप दलित शोषित समाज के लिए हितैषी के रूप में उभरी बहुजन समाज पार्टी आज खुद ही अपनी प्रासंगिकता खो रही है।
कांशीराम जी संपूर्ण परिवर्तन युक्त विचारधारा का नाम है। भारत मे दलितों को सामाजिक अधिकार और राजनीतिक ताकत प्रदान की। बाबा साहेब के बाद अगर किसी ने वंचितों के सामाजिक उत्थान के लिए आजीवन संघर्ष किया तो वो कांशीराम जी थे। 4 बार यूपी मे सरकार बनवाई लेकिन सत्ता को चिमटे से भी नही छुआ
— Brajesh Misra (@brajeshlive) March 15, 2022
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांशीराम की पार्टी का इतना खराब प्रदर्शन आज बसपा सुप्रीमो मायावती को पार्टी के लिए कांशीराम की कमी महसूस होती होगी। हालांकि उन्हें इस बात की गहन समीक्षा करने की जरुरत है कि आखिर दलित समाज का विश्वास बसपा से क्यों उठता जा रहा है?