Digital Story: आजाद भारत…आजाद नारी… तो फिर क्यों राजनीति में महिलाओं की कम है भागीदारी?

महिलाओं ने अपना खून-पसीना एक करके इस प्यारे से देश भारत को आगे बढ़ाया। आज हम कहते हैं कि हमारा देश एक फास्टेस्ट ग्रोइंग इकॉनोमिज....

Digital Story: हम जब कभी भी इतिहास के पन्नों को पलटकर देखते हैं, तो कितनी महिलाओं के नाम सामने आते हैं, जिन्होंने भारत को बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाई। कितनी महिलाओं ने अपना खून-पसीना एक करके इस प्यारे से देश भारत को आगे बढ़ाया। आज हम कहते हैं कि हमारा देश एक फास्टेस्ट ग्रोइंग इकॉनोमिज में से एक है, लेकिन इस इकॉनमी से महिलाओं की भागीदारी आखिर क्यों गायब है? ये काफी अहम् सवाल हैं..

इतना ही नहीं, पिछले कुछ समय में भारत में हो रहे चुनावों में महिला मतदान का प्रतिशत भी बढ़ते हुए देखा गया। इसके बावजूद देश के सबसे बड़े और प्रमुख सेक्टर में महिलाओं की कमी एक बड़ा सवाल खड़े करती है। सवाल यह है कि आखिर हम किन स्तरों पर चीजों को अनदेखा कर रहे हैं, जो राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी कम हो रही है।

आखिर क्यों… भारत में महिलाओँ को पुरुषों के बराबर हक देने औदा देने के लिए कई सारी योजनाएं भारत सरकार लाई.. लेकिन क्या उन योंजनाओं से महिलाओं को बराबर का हक मिला या वो योजनाएं धरी की धरी रह गई… आज हम इस वीडियों के माध्यम से महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव, अन्याय और असमानता से जुड़े खास मुद्दों को उजागर करेंगे। तो चलिए जानते हैं कि आखिर क्यों आज भी राजनीति में पुरुषों से कम हैं महिलाओं की भागीदारी…….

दरअसल आपको बता दें कि पिछले कुछ समय में महिला वोटर की भागीदारी में तो अच्छी-खासी बढ़त देखी गई, लेकिन इसके बावजूद भी राजनीति के मैदान में वे सबसे पीछे हैं। 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 19 राज्यों में महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से अधिक रहा। त्रिपुरा और सिक्किम को छोड़कर पूर्वोत्तर क्षेत्र के सभी राज्यों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं के बीच मतदान प्रतिशत अधिक देखा गया । हालांकि, यह एक बड़ी उम्मीद है…महिलाओं के लिए…. देश के लिए….समाज के लिए… साथ ही अच्छी बात यह थी कि नगरपालिका, राज्य और राष्ट्रीय चुनावों में महिला मतदाताओं के रेशियो में उत्साहजनक वृद्धि हुई। मगर फिर भी उम्मीदवारों के रूप में महिलाओं की संख्या काफी कम थी।

इतना ही नहीं, 18वीं लोकसभा की 543 सीटों में इस बार सिर्फ 74 महिला सांसद ही हैं. पिछली लोकसभा में यह संख्या 78 थी. इस बार चुनी गईं महिला प्रतिनिधि नई संसद का केवल 13.63 फीसदी हिस्सा हैं. सबसे अधिक 31 महिला सांसद इस बार बीजेपी से हैं. वहीं कांग्रेस से 13… TMC यानि तृणमूल कांग्रेस से 11.. समाजवादी पार्टी से 5…. और DMK यानि द्रविड़ मुनेत्र कड़गम से तीन महिला सांसद चुनी गई हैं. इसके साथ ही बिहार की पार्टियां जनता दल-यूनाइटेड और लोक जनशक्ति पार्टी से दो-दो महिला सांसद चुनी गई हैं….

वैसे इस बाद पर खुश हुआ जाए या खामोश..कि देश में महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी हैं… लेकिन सांसदों की नहीं…. अगर हम महिला उम्मीदवारों की संख्या देखें, तो 1957 के आम चुनावों से लेकर 2024 के चुनावों तक महिला उम्मीदवारों का आंकड़ा 1,000 के पार नहीं जा पाया है. 2024 के लोकसभा चुनावों में कुल 8,360 उम्मीदवार मैदान में थे. हालांकि, प्रत्याशियों की इस विशाल संख्या में महिलाओं की कुल हिस्सेदारी सिर्फ 10 फीसदी ही रही. लोकसभा की 543 सीटों पर केवल 797 महिला प्रत्याशियों ने ही इस बार चुनाव लड़ा. महिला सांसदों की घटती संख्या के पीछे सबसे बड़ी चुनौती उनकी कम उम्मीदवारी भी है.

2019 के लोकसभा चुनावों में 726 महिला उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा, लेकिन तब 78 महिलाएं ही जीतकर संसद पहुंची थीं. वहीं, 2014 में 640 महिला उम्मीदवार थीं और इनमें से 62 महिलाएं सांसद बनीं. 2009 के चुनावों में 556 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं, जिनमें से 58 महिलाएं संसद पहुंचीं. हर लोकसभा चुनाव के साथ महिला उम्मीदवारों की संख्या तो जरूर बढ़ी है, लेकिन इनमें से चुनकर संसद तक पहुंचने का सफर बेहद कम महिलाएं ही तय कर पाती हैं…. इसका सबसे बड़ा कारण हैं… देश की अधिकतर बड़ी पार्टियां….जो महिलाओं को टिकट देने में उतनी उदारता नहीं दिखाती…. सत्ताधारी बीजेपी ने 69 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया. वहीं, देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने भी केवल 41 महिला उम्मीदवारों को ही टिकट दिया. बहुजन समाज पार्टी ने 37 और सपा ने 14 सीटों पर महिला उम्मीदवारों को उतारा. पश्चिम बंगाल में टीएमसी ने 12 महिलाओं को टिकट दिया था…..

इसी के साथ आपको बता दें कि भारत में 1952 में पहली बार लोकसभा चुनाव हुए थे. पहली लोकसभा में महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व पांच फीसदी था, तब 22 महिलाएं सांसद बनी थीं. वहीं 17वीं लोकसभा में 78 महिलाओं के साथ यह बढ़कर 14.36 फीसदी तक पहुंचा. लेकिन 2024 के आम चुनावों के बाद यह घटकर अब 13.63 फीसदी पर आ गया है….पिछली लोकसभा के मुकाबले महिला सासंदों की संख्या ऐसे समय में कम हुई है, जब भारत में महिला आरक्षण विधेयक जैसे बिल को मंजूरी मिल चुकी है. हालांकि, यह विधेयक अब तक लागू नहीं हुआ है… ऐसे में पार्टियों की उम्मीदवारों की लिस्ट में महिलाओं की मौजूदगी को देखते हुए उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठना भी लाजिमी है…. इस विधेयक के तहत लोकसभा और प्रदेश विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करना अनिवार्य है….हालांकि, यह विधेयक अगली जनगणना के बाद ही लागू हो पाएगा. वही इस विधेयक को संसद में पास होने में 27 सालों का वक्त लग गया..

हालांकि यह देखना भी बेहद जरूरी है कि किन महिलाओं को पार्टियां टिकट देने में प्राथमिकता देती हैं. दरअसल अधिकतर महिला उम्मीदवार जो जीत दर्ज कर संसद का रास्ता तय करती हैं, उनका संबंध किसी-न-किसी राजनीतिक या प्रभावशाली परिवार से ही होता है. चाहे वह सपा से डिंपल यादव हों, एनसीपी से सुप्रिया सुले, राजद से मीसा भारती, अकाली दल से हरसिमरत बादल या बीजेपी से बांसुरी स्वराज….. वैसे तो इस बार कई युवा महिलाएं भी सांसद चुनी गई हैं…. सपा की प्रिया सरोज, लोजपा से शांभवी चौधरी, कांग्रेस से प्रियंका सिंह और संजना जाटव पहली बार सांसद बनी हैं. इन सबकी उम्र 30 साल से कम है, लेकिन इनमें से अधिकतर महिलाएं राजनीतिक परिवारों से ही ताल्लुख रखती हैं….

अक्सर देखने को मिलता हैं कि राजनीतिक पार्टियां उन महिलाओं को ही टिकट देने में प्राथमिकता देती हैं, जो मजबूत राजनीतिक परिवारों से आती हैं ताकि उनके जीतने की संभावना अधिक हो. भारतीय राजनीति के संदर्भ में यह एक बड़ा तथ्य है कि सामान्य पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों को टिकट मिलना मुश्किल है, खासकर महिलाओं या दूसरी वंचित पहचान वालों के लिए……

राजनीति में लैंगिक समानता की दृष्टि से भारत आज भी कई देशों से काफी पीछे है. बात अगर करें भारत के अलावा अन्य देशों कि तो दक्षिण अफ्रीका में 46 फीसदी, ब्रिटेन में 35 फीसदी, तो अमेरिका में 29 फीसदी सांसद महिलाएं हैं. ये महज चंद मामले हैं. वैसे वैश्विक स्तर पर राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन राजनीति जैसा एक अहम् क्षेत्र आज भी लैंगिक समानता से दूर है…राजनीति में महिलाओं को लैंगिक असमानता का सामना बेहद निचले स्तर से करना पड़ता है… टिकट मिलने से लेकर सांसद बनने तक और मंत्री पद तक. आंकड़े साफ नजर आते हैं कि दुनियाभर में आज भी महिलाओं को सबसे अधिक जो मंत्रालय सौंपे जाते हैं उसमें बाल विकास, परिवार, सामाजिक कल्याण और विकास, अल्पसंख्यक जैसे मंत्रालय ही शामिल होते हैं…..

मातृसत्ता बनाम पितृसत्ता : ऐतिहासिक विवेचन – जनचौक

हमारे देश में महिला के लिए क्या सही है और क्या नहीं, यह सदियों पहले पितृसत्तात्मक समाज तय कर चुका है। ये प्रचलित सामाजिक मानदंड महिलाओं को राजनीतिक करियर में उतरने से हतोत्साहित करते हैं। यह तो हम सभी जानते हैं कि आज भी प्रचलित धारणा यही है कि महिलाओं की प्राथमिक भूमिकाएं एक पत्नी, बहू, बेटी और मां होने के इर्द-गिर्द घूमनी चाहिए। राजनीति के क्षेत्र को आज भी पुरुषों के लिए ही आरक्षित माना जाता है। आपको नहीं लगता कि देश के इतने महत्वपूर्ण संस्थाओं से महिलाओं का बहिष्कार करना लोकतंत्र के सिद्धांतों को स्थापित करने की संभावनाओं को सीमित करता है? यह सवाल सिर्फ पूछे ही नहीं जाने चाहिए, बल्कि इनका हल निकालना भी महत्वपूर्ण है। अब आप ही बताइए क्या महिलाएं वाकई आजाद है?

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