किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन, बच्चों के अपराधियों को छूट देकर किसको बचाने का प्रयास कर रही सरकार ?

ब्लॉग- सर्वेश मिश्रा

बदलाव हमेशा प्रगतिशील नहीं होता है और अगर यह बच्चों के संदर्भ में है, तो हमें बहुत सावधान रहना चाहिए क्योंकि यह बच्चों, खासकर वंचितों के बच्चों के भविष्य के लिए कहर ढा सकता है। किशोर न्याय अधिनियम 2015 में केंद्रीय भाजपा सरकार द्वारा लाया गया परिवर्तन एक ऐसा ही. परिवर्तन है. विशेष रूप से किशोर न्याय अधिनियम 2015 की धारा 86 (2) में परिवर्तन। यह दलितों, मुसलमानों, ट्रांसजेंडर, सिंगल मदर्स और ट्राइबल जैसे कमजोर वर्गों के बच्चों की सुरक्षा के लिए खतरा है। क्योंकि इन वर्गों को कानून और अधिकारियों द्वारा ऐतिहासिक रूप से शत्रुता का सामना करना पड़ा है. यह एक छोटा सा परिवर्तन इन कमजोर वर्गों के बच्चों को न्याय से वंचित कर देने की क्षमता रखता है. क्योंकि यह परिवर्तन उनको न्याय प्रणाली से बाहर कर देगा, उन्हें सिस्टम में घुसने ही नहीं देगा.

पहले, भारत में बच्चों की सुरक्षा के लिए किशोर न्याय अधिनियम 1986 था, जिसे किशोर न्याय देखभाल और बच्चों की सुरक्षा अधिनियम 2000 द्वारा बदल दिया गया था। और बहुत चर्चा और बहुत देरी के बाद, भारत ने 2015 में किशोर न्याय अधिनियम पारित किया, और निस्संदेह यह एक आधुनिक कानून था। इस अधिनियम ने जुवेनाइल डिलिंक्वंट के नामकरण को चाइल्ड इन कन्फ्लिक्ट विद लॉ में बदल दिया। जुवेनाइल या चाइल्ड शब्द का अर्थ अब एक व्यक्ति (दोनों लिंगों का) है, जिसने 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है। किशोर न्याय अधिनियम 1986 में यह आयु लड़कों के लिए 16 वर्ष और लड़कियों के लिए 18 वर्ष थी। साथ ही पहली बार 2015 में तस्करी और वेश्यावृत्ति के अलावा बच्चों की बिक्री को भी इसमें अपराध माना गया. दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि देश ने पहली बार अपने बच्चों को अपने नागरिकों के रूप में मान्यता दी।

उसके बाद, CPCR Act 2005 के अंतर्गत बच्चों के अधिकारों के लिए बने एनसीपीसीआर और डीसीपीसीआर जैसे निकाय समाचारों में नियमित रूप से स्थान पाने लगे, जो कि स्पष्ट रूप से दिखाता है कि भारत ने अपने बच्चों को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया।

लेकिन 15 मार्च 2021 को केंद्र की भाजपा सरकार ने लोकसभा में जेजे एक्ट में संशोधन पास कराया और इसे राज्यसभा में भी 28 जुलाई 2021 को पारित किया गया और फिर भारत के राष्ट्रपति ने इसे अपनी स्वीकृति दे दी। इसके बाद बच्चों द्वारा किये गये अपराध को तो गंभीरता से लिया गया है लेकिन बच्चों पर हुए अपराध की तीव्रता को कम कर दिया गया है. हालाँकि संशोधन को अभी अधिसूचित किया जाना बाकी है, इसलिए अभी भी चर्चा की उम्मीद है।


संशोधनों में जेजे अधिनियम 2015 की धारा 86 (2) में एक बदलाव है जो कहता है: “जब इस अधिनियम के तहत अपराध तीन साल और उससे अधिक की अवधि के कारावास से दंडनीय है, लेकिन सात साल से अधिक नहीं, तो ऐसा अपराध संज्ञेय, गैर-जमानती और प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय होगा।”

यह बदलाव बच्चों पर हुए अपराध को बुरी तरह प्रभावित करता है. इस संशोधन के बाद यदि कोई व्यक्ति अपने बच्चे के साथ हुए अपराध के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के लिए थाने जाता है तो प्राथमिकी दर्ज करने से पहले पुलिस उसे अनुमति के लिए मजिस्ट्रेट के पास ले जाएगी। दलित, आदिवासी, मुस्लिम, ट्रांसजेंडर, सिंगल मदर के लिए यह एक मुश्किल काम होगा। एक वकील और बहुत सारे पैसे के बिना, उनके लिए प्राथमिकी दर्ज करने में सक्षम होना लगभग असंभव होगा।

इस संदर्भ में, डीसीपीसीआर ने 6 अप्रैल 2022 को कॉन्स्टीट्यूशनल क्लब ऑफ इंडिया में एक पैनल चर्चा का आयोजन किया जहां डीसीपीसीआर के अध्यक्ष अनुराग कुंडू ने अपने विचार रखे जो गरीबों और वंचितों की भावनाओं को प्रतिध्वनित कर रहा था क्योंकि इस बदलाव पर बात ही नहीं हो रही।वहां मुख्य वक्ता जानी मानी वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा कि यह कदम कानून के क्षेत्र में सरकार द्वारा की गई प्रगति के बिल्कुल विपरीत है।


आप पार्टी के राज्यसभा सांसद श्री संजय सिंह इस विसंगति की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए संसद में एक प्राइवेट मेंबर विधेयक पेश करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि बच्चों पर चर्चा सांप्रदायिक शोरगुल में खो गई है।

यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सरकार को 2021 के संशोधन में धारा 86(2) को बदलने की आवश्यकता क्यों पड़ी। इसके लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है। मैं केंद्र सरकार के विपक्ष के रूप में यह सवाल उठाता हूं। इसे सरकार क्यों नहीं समझा रही है? सरकार खुद क्यों नहीं समझ रही है इस बात को?


राष्ट्रीय अपराध रिपोर्ट ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, किशोर अपराध प्रतिशत में वृद्धि हुई है। यह डेटा के अलावा कॉमन सेन्स से भी समझा जा सकता है. जैसे-जैसे दुनिया बदल रही है और इंटरनेट के कारण, युवा अपने जीवन में कई अनुभवों से अवगत हो रहे हैं, उनके द्वारा हुए अपराधों के तरीके बदलेंगे और उनके खिलाफ हुए अपराधों के तरीके भी बदलेंगे. इस हिसाब से किशोर न्याय प्रणाली को अधिक सावधान और सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए।

बदलती दुनिया के लिए, हम बच्चों को दंडित करने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर सकते हैं, बल्कि हम देश के बेहतर भविष्य के लिए उनकी ऊर्जा का उपयोग करना चाहते हैं, जो कि जेजे अधिनियम 2015 का इरादा है। तो हमें उनके साथ हुए अपराधों को लेकर ज्यादा संवेदनशील होना पड़ेगा क्योंकि यह उनकी पूरी जीवनधारा को बदल सकता है. यह कल्पना करें कि किसी बच्चे के साथ अपराध हुआ और वह थाने में दर्ज भी नहीं हो पाया तो वह किस मानसिकता के साथ बड़ा होगा? क्या हम अपने बच्चों को इस डर में पालना पोसना चाहते हैं?

हालांकि अन्य पहलुओं में, यह संशोधन प्रगतिशील हैं। यह कानून के आश्वासन के साथ बच्चों के मुख्यधारा में शामिल होने को सुगम बनाता है और अपने सीधे दृष्टिकोण के साथ बच्चों की भलाई की ही बात करता है। लेकिन धारा 86(2) में हुए बदलाव से सभी इरादों के चौपट होने का खतरा है। क्योंकि अगर माता-पिता और बच्चों के परिवार थाने ही नहीं पहुंच सकते तो कानून क्या कर लेगा?

केंद्र सरकार को संशोधन के इस हिस्से की व्याख्या करनी चाहिए। नहीं तो विपक्ष तो पूछता ही रहेगा कि सरकार किसको बचाने की कोशिश कर रही है? यह सरकार की मंशा पर एक बड़ा आरोप है. व्यावहारिक रूप से इसके बहुत बड़े परिणाम होंगे। कानून भारत के बच्चों को विफल नहीं कर सकता। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।

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