एक नए निम्नपदस्थ वर्ग का उदय और समाजवादी पार्टी की जीत

ब्लॉग : अरुण कुमार

हालिया लोकसभा चुनाव परिणाम कई मायनों में अभूतपूर्व रहे हैं । बीजेपी बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने में विफल रही है, और भारतीय राजनीति में गठबंधन सरकार का एक नया दौर शुरू हो गया है। अधिकांश राजनीतिक और एग्जिट पोल चुनाव विशेषलकों का मानना था कि भाजपा की बहुमत सरकार तय है। इसके विपरीत, इंडिया-ब्लॉक के सहयोगियों ने चुनाव में एक भारी बढ़त बनायी और भाजपा को एक गठबंधन सरकार की अनिश्चितताओं की तरफ़ धकेल दिया। यूपी, जिसे पिछले दो चुनावों से बीजेपी के वर्चस्व का गढ़ माना जाता था, अब समाजवादियों की लाल टोपी की लहर में दिखाई देता है। समाजवादी पार्टी ने यूपी लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर और भारतीय संसद में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में प्रतिनिधित्व की कमान सम्भाल कर राष्ट्रीय ध्यान अपनी तरफ़ खींच लिया है। पार्टी ने 37 सीटें हासिल कीं है, जबकि पिछले 2019 के चुनावों में यह पार्टी 5सीटों पर ही सिमट गई थी। समाजवादी पार्टी का यह अब तक का सबसे शानदार प्रदर्शन रहा है। इस बात का अध्ययन करना बड़ा रोचक है कि एसपी को जनता का इतना व्यापक समर्थन क्यों मिला? कई विश्लेषण ऊपर के दृष्टिकोण से किए जा सकते हैं, जैसे कि बेहतर चुनावी रणनीत, एक शानदार मैनिफेस्टो, आदि। नीचे से की गई व्याख्या एक पूरी तरह से अलग समझ प्रस्तुत करती है जिस पर मैं अपने पाठक का ध्यान केंद्रित करना चाहूँगा।

पिछले बीस सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने में कई बदलाव आयें हैं । जो सबसे बड़ा बदलाव है वह नवउदारवादी अर्थव्यवस्था का जन्म है। इससे हमारे जीवन में कई सकारात्कम बदलाव तो आयें है, पर इस अर्थव्यवस्था के चलते समाज में एक नये अधीनस्थ वर्ग या यूँ कहे कि एक नये निम्नपदस्थ वर्ग का उदय भी हुआ है। यह वर्ग अर्थव्यवस्था की सीढ़ी में सबसे नीचे की ओर खड़ा है जो ऊपर चढ़ने की कोशिश में निरंतर लगा हुआ है। इस वर्ग में कई वो लोग हैं जो नौकरी की तलाश में हैं या फिर कम वेतन और सामाजिक सुरक्षा लाभों के अभाव में अस्थिर रूप से जीवन यापन कर रहे हैं। ये लोग सालों साल से ठेके पर नौकरी कर रहे हैं और वो भी कम वेतन में, जबकि इनके साथ वाले जिनके पास पक्की नौकरियाँ हैं वो इनसे बेहतर वेतन उठाते हैं, बेहतर जीवन जीते हैं, और बेहतर सामाजिक इज्जत के हक़दार भी हैं। नवउदारवादी अर्थव्यवस्थाके साथ ही एक असुरक्षित जीवन की सम्भावनाओं से घिरे निम्न-मध्यम वर्ग समूह का भी उदय हुआ है जो सार्वजनिक संसाधनों के वितरण में और नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के फ़ायदे उठाने में बिलकुल हाशिये पर है।नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की नीतियों से पीड़ित यह तबका अब सरकार और निजी रोज़गार क्षेत्र दोनों में उपस्थित है।यही वह सामाजिक वर्ग है जो सपा की राजनीति में अपना एक बेहतर भविष्य देख रहा है और उसके संदेश को जन-जन तक लेकर गया।

निम्नपदस्थ वर्ग
सपा ने अपनी चुनावी रैलियों में निम्नपदस्थ वर्ग के साथ हो रहे अन्याय पर बल दिया है। उनके मैनिफेस्टो और भाषणों में एक बात जो साफ़ निकल कर सामने आती है वो है “निम्नपदस्थ वर्ग के साथ न्याय” (subaltern justice)। इस नैरेटिव में सामाजिक और आर्थिक न्याय के आह्वान का मिश्रण है।आर्थिक और सामाजिक रूप से उत्पीड़ितों को एकजुट रखना एसपी के लिए इस चुनाव की कुंजी खोलने जैसा रहा। उनकी चिंताओं में सबसे महत्वपूर्ण था पेपर लीक मुद्दा और 69000 शिक्षकों की भर्ती के मामला। चिंतित युवा वर्षों से इन मामलों पर निष्पक्ष आचरण के लिए माँग कर रहे थे। पेपर लीक, परिणामस्वरूप परीक्षा रद्दीकरण, विवादास्पद परिणाम, और विलंबित जॉइनिंग जैसे कुछ प्रमुख मुद्दे सामाजिक ताने बाने से ऐसे जुड़े थे कि वो एक आम परिवार की बढ़ती दैनिक असुरक्षाओं को हवा दे रहे थे। मेरे बच्चों का भविष्य कैसा होगा? इन परिवारों ने अपनी जमा पूँजी का एक मोटा हिस्सा अपने बच्चों के शिक्षा पर लगा दिया है इस उम्मीद में कि जब बच्चों की नौकरी लगेगी तो एक बेहतर भविष्य बनेगा। दिन पर दिन नौकरियों में बढ़ती प्रतिस्पर्धा और नौकरी बाज़ारकेसिकुड़नेने युवाओं की नौकरी की तलाश को लंबा कर दिया है। निराश माता-पिता एक बेहतर भविष्य की उम्मीद के साथ अखिलेश यादव के संदेश के साथ जुड़े है। एसपी प्रमुख अखिलेश यादव ने बेरोज़गारी के मुद्दे को संवेदनशीलता से उजागर किया और इसे अपने भाषणों में जगह दी। उन्होंने अपने श्रोताओं को निष्पक्ष परीक्षाएं आयोजित करने का वायदा दिया, और लोक सभा जीत के बाद, यूजीसी-नेट और NEET परीक्षा के मुद्दे को प्रमुखता से जगह दी है।

रोज़गार और बेरोज़गारी के मामले पेपर लीक तक सीमित नहीं थे, बल्कि नौकरी भर्ती में आरक्षण नीतियों के असंतोषजनक कार्यान्वयन से भी जुड़े हैं और पेंशन जैसे जटिल मुद्दे से भी जुड़े हैं। जाति जनगणना पर ज़ोर और PDA के नारे ने समाजवादी पार्टी को उन अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी के करीब लाया, जो अपने सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए आरक्षण को महत्वपूर्ण मानते हैं। इंडिया-ब्लॉक के नेता राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने संविधान की किताब को पकड़े रखा और इसे चुनाव का प्रतीक बना दिया। उत्तर प्रदेश में दोनों पार्टियों का मुख्य संदेश रोज़गार सृजन और आबादी के अनुपात में बेहतर आरक्षण कार्यान्वयन था (‘जितनी आबादी, उतना हक’)। हालाँकि कांग्रेस अपने सामाजिक-आर्थिक संसाधनों के वितरण के आधे-अधूरे विचारों को उचित भाषा देने में विफल रही, लेकिन भाजपा नेताओं के प्रतिवाद ने कांग्रेस के घोषणापत्र, “न्याय पत्र” को चुनाव की चर्चा बना दिया। गरीब महिलाओं को 1 लाख रुपये की वित्तीय सहायता (महालक्ष्मी योजना) की घोषणा ने तो महिला मतदाताओं के साथ एक तार जोड़ दिया था।

एसपी की निम्नपदस्थ न्याय की राजनीति में, हमें पार्टी के प्रमुख विचारक राम मनोहर लोहिया के सपनों और दृष्टिकोणों की वापसी भी मिलती है, जिन्होंने दलितों, पिछड़े वर्गों, महिलाओं और आदिवासियों के अधिकारों की वकालत की थी और उनके लिए 60 प्रतिशत आरक्षण की मांग भी की थी। अखिलेश यादव की पीडीए रणनीति को, जो पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक और आधी आबादी (महिलाओं) के कल्याण के लिए खड़ी है, लोहिया के विचारों से अलग नहीं देखा जा सकता है। इसने एसपी के मूल समर्थन आधार – यादवों और मुसलमानों – से परे नए मतदाताओं को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस रणनीति का सीधा प्रभाव एसपी उम्मीदवारों के चयन में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, अखिलेश यादव ने न केवल श्री अवधेश प्रसाद, जो पासी समुदाय से भी हैं और सपा के वरिष्ठ नेता हैं, को गैर-आरक्षित अयोध्या सीट से टिकट दिया, बल्कि संसद में उनके साथ पहली पंक्ति की सीट भी साझा की। अयोध्या जीतना राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतीकात्मक रहा।बीएसपी के वोट-बेस के धीमी गति से पतन से उत्पन्न राजनीतिक और चुनावी अंतराल को भरने की कोशिश में लगी सपा एक नये नैरेटिव को जन्म दे रही है जो सिर्फ़ कुछ जातियों के न्याय से बढ़कर सबके सामाजिक सम्मान पर ज़ोर देती है। संभव है कि श्री प्रसाद को आगे की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ दी जाएँ क्योंकि वह पीडीए रणनीति की प्रतीकात्मक और वास्तविक जीत दोनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

भविष्य की राजनीति
हालांकि बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन ने सुरक्षित सरकार बनाई है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना शीर्ष पद बरकरार रखा है, इंडिया-ब्लॉक विपक्ष ने संसदीय कार्य के पहले सप्ताह में ही अपनी मजबूत उपस्थिति को रेखांकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्होंने NEET परीक्षा के मुद्दे पर सरकार को घेर लिया है और उपाध्यक्ष पद पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया था। सवाल यह है कि क्या सपा की पीडीए रणनीति भविष्य में कामयाब रहेगी?इसके सफल होने में एक बहुत बड़ा हिस्सा इस बात पर निर्भर करेगा कि वह निम्नपदस्थ वर्गों के लिए असली मायने में क्या राहत प्रदान करती है।जो अस्थिर नौकरियों पर कम वेतन के साथ कार्यरत हैं उनके लिए वर्तमान राजनीति को देने के लिए क्या है? इस बात की पड़ताल सब पार्टियों को करनी पड़ेगी। सामाजिक न्याय की कल्पना अब आर्थिक न्याय के बिना नहीं सोची जा सकती है। और यही समन्वय न्याय एक रोशनी की किरण है जो हमें समकालीन असमानता के काले-गहरे बादलों से बाहर ले जा पाएगी।

लेखक अरुण कुमार नॉटिंघम विश्वविद्यालय, यूके में इतिहासकार हैं।

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