ब्लॉग : प्रसिद्ध इतिहासकार ने UPSC के पैटर्न पर उठाया सवाल, कहा – सिविल सर्विसेज की परीक्षाओं पर पुनर्विचार करने की जरुरत

बीते सप्ताह कार्मिक, लोक शिकायत और कानून एवं न्याय विभाग से सम्बंधित संसद की स्थायी समिति ने ‘‘रिव्यू ऑफ़ फंक्शनिंग ऑफ रिक्रूटमेंट....

बीते सप्ताह कार्मिक, लोक शिकायत और कानून एवं न्याय विभाग से सम्बंधित संसद की स्थायी समिति ने ‘‘रिव्यू ऑफ़ फंक्शनिंग ऑफ रिक्रूटमेंट ऑर्गेनाइजेशंस ऑफ गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया’’ के नाम से एक रिपोर्ट संसद में पेश की। इस रिपोर्ट में सिविल सर्विसेज एग्जाम और सिविल सर्वेंट्स को लेकर कुछ बातें कही गयीं। ये बातें न केवल उन सिविल सर्वेंट्स की मंशा पर सवालिया निशान लगा रही हैं जो इंजीनियरिंग व मेडिकल बैकग्राउंड के हैं बल्कि यूपीएससी के परीक्षा पैटर्न को भी कठघरे में खड़ा करती हैं।

समिति ने जिन पक्षों पर फोकस किया है उनमें से पहला है। वर्तमान समय मं सिविल सर्विसेज में 70 प्रतिशत से अधिक अभ्यर्थी टेक्निकल स्ट्रीम के सफल हो रहे हैं। इनका सिविल सर्वेंट बनने का लालच अन्य क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है जो ‘राष्ट्र की आवश्यकता है’। दूसरा- देश प्रतिवर्ष उन सैकड़ों टेक्नोक्रेट्स को खो दे रहे हैं जिनके अन्य विशिष्ट क्षेत्रों में काम करने की संभावना है और ये देश की आवश्यकता के क्षेत्र हैं। तीसरा- सरकार ने सिविल सेवकों के लिए प्रशिक्षण व्यवस्था में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं लेकिन अधिकारियों की दक्षता (एफिसिएंसी), ऊर्जा (एनर्जी) और तीव्रता (इंटेंसिटी) में अभी भी सुधार की जरूरत है। चौथा- एक सिविल सर्वेंट सरकार और आम जनता के बीच ‘इंटरफ़ेस’ है जिसके लिए लोगों के प्रति काफी मानवीय स्पर्श (ह्यूमन टच) और संवेदनशील दृष्टिकोण की जरूरत होती है। वे ज्यादातर समय गरीब लोगों के बीच काम करता है ना कि संभ्रांत लोगों के बीच। ऐसे में यदि संवेदनशीलता की कमी है तो वह अच्छा प्रशासक नहीं हो सकता। पांचवां- वर्तमान सिविल सेवकों के पास अपने पूर्व भारतीय सिविल सर्वेंट्स के समान कानूनी कौशल नहीं है। आठवां- आईएएस, आईपीएस, आईआरएस, और आईएफएस के लिए पूरी भर्ती प्रक्रिया पर पुनर्विचार करने का यही सही समय है।

समिति ने जिन पक्षों को उठाया है वे इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि सिविल सेवा परीक्षा के पैरामीटर्स और पैटर्न पूरी तरह से दुरुस्त नहीं है। एक बात और, अगर समिति यह मानती है कि पहले के सिविल सेवकों में कानूनी कौशल अधिक था तब तो क्या यूपीएससी में किए गये बदलावों से पहले का परीक्षा पैटर्न ज्यादा बेहतर था। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या यूपीएससी को अपने परीक्षा पैटर्न पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए ? यूपीएससी के इस पैटर्न हिन्दी माध्यम और ह्यूमैनिटी स्ट्रीम के अभ्यर्थी जिस तरह से उंगली उठाते रहे हैं, वहीं बात संसदीय समिति कह रही है। फिर यूपीएससी उनकी बात क्यों नहीं सुनना चाहता।

यूपीएससी ने वर्ष 2011 में जिस उद्देश्य को लेकर एप्टीट्यूड टेस्ट को शामिल किया था, क्या वह पूरा हुआ ? सीसैट अभ्यर्थी की एनालिटिकल स्किल, इंटरपर्सनल एबिलिटी, डिसीजन मेकिंग, एप्टीट्यूड, जनरल मेंटल एबिलिटी और रीजिनिंग एबिलिटी का स्तर जांचने के लिए था, तो क्या वास्तव में ऐसा हो पा रहा है। एक बात और वर्तमान एक्जाम पैटर्न में नॉन-इंग्लिश, नॉन-अर्बन और नॉन-टैक्निल भारत कहां खड़ा है? वर्तमान एग्जाम पैटर्न में क्वालिटी कितनी महत्वपूर्ण है और क्वाण्टिटी कितनी? क्वालिटी ऑफ नॉलेज कितना महत्वपूर्ण है और जनरल इनफर्मेशन कितनी?

समिति के अनुसार इंजीनियरिंग बैंकग्राउंड के अभ्यर्थियों का चयन वर्ष 2011 के 46 प्रतिशत से 2020 में 65 प्रतिशत पर पहुंच गया। हालांकि मेडिकल वालों की संख्या कुछ कम हुई है जो 2020 में 4 ही रही। लेकिन ह्यूमैनिटी से चयन इसी अंतराल में 27 प्रतिशत घटकर 23 प्रतिशत पर आ गये। 2020 की ही बात करें तो इस वर्ष में चयनित कुल 833 अभ्यर्थियों में से 541 (65 प्रतिशत) इंजीनियरिंग बैकग्राउंड के हैं, 33 (4 प्रतिशत) मेडिकल के और 193 (23 प्रतिशत) ह्यूमैनिटी के जबकि 66 ( 8 प्रतिशत) अन्य बैकग्राउंड के। यदि यह जांच भी हो जाए कि इस एग्जाम हेतु आए कुल आवदेनों में से अलग-अलग बैकग्राउंड वाले अभ्यर्थियों का चयन का प्रतिशत क्या है तो कहानी और गंभीर नजर आएगी।

समिति का कहना है इंजीनियरिंग और मेडिकल स्ट्रीम के युवा सिविल सर्वेंट बनने के लालच में उन क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं जो ‘राष्ट्र की जरूरत के हैं।’ इसमें सच्चाई तो है। यहां एक सवाल यह भी है कि आईआईटी-जेईई अथवा मेडिकल क्षेत्र में जब यही अभ्यर्थी गये थे तब क्या इनका उद्देश्य एक अच्छा इंजीनियर अथवा डॉक्टर बनना नहीं था ? यदि नहीं तो तो इस दिशा में गये क्यों और यदि हां तो यह तो ब्रीच ऑफ ट्रस्ट है क्योंकि राज्य (देश) इन्हें इंजीनियर या डॉक्टर बनाने के लिए एक बड़ी धनराशि खर्च करता है और बनने के बाद ये अपनी सेवाएं इन सेक्टर्स में नही देते बल्कि सिविल सर्विसेज में चले जाते हैं। ऐसा करके क्या ये राज्य के ट्रस्ट को भंग नहीं करते? यही नहीं यू दूसरी स्ट्रीम के लोगों के अधिकार भी छीन लेते हैं। क्या इसे नैतिक दृष्टि से उचित माना जा सकता है? यदि नहीं तो फिर एथिक्स के पेपर की प्रासंगिकता क्या है?

यदि यूपीएससी के प्रश्नपत्रों का गहराई से अध्ययन किया जाय तो इस निष्कर्ष तक पहुंचने में अधिक कठिनाई नहीं होगी की एग्जामिनेशन पैटर्न का अंग्रेजी माध्यम और टैक्निकल स्ट्रीम वालों के लिए फेवरेबल है। 3 चरणों में सम्पन्न होने वाले इस एग्जाम में पहला प्रिलिमनरी है जिसमंे वर्ष 2011 में सीसैट अर्थात सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टेस्ट जोड़ दिया गया। लेकिन सच्चाई यह है कि यूपीएससी अभ्यर्थी की एनालिटिकल स्किल, इंटरपर्सनल एबिलिटी, डिसीजन मेकिंग और एप्टीट्यूड पर फोकस करने की बजाय मैथ्स और रीजनिंग पर फोकस अधिक करता है। ऐसा क्यों? यह सही अर्थों में नॉन-इंग्लिश, नॉन-अर्बन और नॉन-टैक्निकल अभ्यर्थियों के अनुकूल नहीं है। चूंकि यूपीएससी नॉलेज को नहीं टफनेस पर फोकस करता हुआ दिख रहा है जिससे नॉन-टैक्निकल बैकग्राउंड वाले अभ्यर्थी स्क्रीनिंग राउंड में ही बाहर हो जाते हैं। उन्हें मुख्य परीक्षा देने का अवसर ही नहीं मिल पाता जबकि उनका सब्जेक्टिव नॉलेज और अभिव्यक्ति की क्षमता टेक्निकल स्ट्रीम वालों से कम नहीं होती। यही वजह है कि ह्यूमैनिटी स्ट्रीम के अभ्यर्थी यह आरोप लगाते रहते हैं कि मैथ्स और रीजनिंग को वरीयता उन लोगों को बाहर रखने के उपकरण हैं। वास्तव में मैथ के प्रश्न आईआईटी, जेईई एवं कैट के स्टैंडर्ड के होते हैं जबकि यूपीएसी के सिलेबस में इनका स्टैंडर्ड हाई स्कूल स्तर का है। क्या कोई भी यह स्वीकार कर सकता है कि परम्युटेशन और कांम्बिनेशन के प्रश्न हाई स्कूल स्टैंडर्ड के हैं ? यूपीएससी इनके माध्यम से अभ्यर्थियों में कौन सी ऐसी एबिलिटी ढूंढना चाह रहा है जो सिविल सर्वेंट्स की योग्यता, दक्षता और कौशल को जानने का प्रतिमान हो।

एप्टीट्यूड टेस्ट में काम्ंिप्रहेंशन एक महत्वपूर्ण पार्ट है जिसके करीब 30 से 35 प्रश्न आते हैं। कॉम्प्रिहेंसन से जुड़े पैराग्राफ मूलतः अंग्रेजी भाषा में बनाए जाते हैं तत्पश्चात हिन्दी एवं अन्य भाषाओं के अभ्यर्थियों के लिए इनका अनुवाद किया जाता है। यह ‘भावानुवाद’ नहीं होता है बल्कि गूगल ट्रांसलेशन जैसा होता है। इसलिए हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों के सामने बड़ा संकट खड़ा हो जाता है। अनुवाद के बाद उपजे शब्द अनर्थकारी होते हैं जबकि ‘आंसर की’ अंग्रेजी के अनुसार होती है। यही चीज हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों के लिए दिल्ली दूर बना देती हैं। उदाहरणार्थ – एक पेपर में ‘स्टील प्लांट’ का अनुवाद ‘स्टील पौधा’ किया गया, ‘पीसी टेबलेट’ का अनुवाद ‘पीसी गोली’ किया गया, सिविल डिसओबिडियंस मूवमेंट का अनुवाद ‘असहयोग आंदोलन’ किया गया……आदि। यह किस तरह की बौद्धिक क्षमता का परीक्षण है ?

हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों और एक्सपर्ट्स का आरोप है कि क्वेश्चन पेपर्स अंग्रेजी के दो ऐसे अखबारों को मुख्य रूप से फॉलो करते हैं जिनका सरोकार भारत की ग्रामीण पृष्ठभूमि से नहीं रहता। जबकि पीआईबी, योजना आदि सरकारी साइट्स व मैगजीन सहित हिंदी समाचार पत्रों का कनेक्ट और मैटर भी इनके समकक्ष या फिर इनसे बेहतर होता है। इनका दूसरा आरोप यह है कि यूपीएससी क्वेश्चन पेपर्स को टेक्सचुअल बनाने की बजाय इनफॉर्मेटिव अधिक बनाता जिससे नॉलेज चेक नहीं हो पाती। इसी तरह से यदि मुख्य परीक्षा की बात करें। तो वहां क्वेश्चन पेपर अच्छे बनाते जिनमें स्टैटिक और डायनॉमिक पार्ट, दोनों ही होते हैं। लेकिन वहां पर भी यह प्रश्न है कि कॉपी कौन चेक करता है, मॉडल उत्तर किस भाषा में दिया गया होता है….आदि।

सूत्रों के अनुसार अंग्रेजी माध्यम का एग्जामिनर होता है और उत्तर का मॉडल भी अंग्रेजी भाषा का। अब सवाल यह है कि अगर हिंदी माध्यम का एग्जामनर अंग्रेजी माध्यम की कॉपी का मूल्यांकन नहीं कर सकता तो फिर अंग्रेजी माध्यम वाला हिंदी माध्यम की कॉपी का मूल्यांकन कैसे कर सकता है ? हिंदी की शब्दावली, अभिव्यक्ति, विश्लेषण और बात कहने का तरीका अंग्रेजी से भिन्न होता है। इस तरह के व्यवहार और मानदण्ड को लेकर प्रश्न केवल हिन्दी माध्यम वालों का नहीं है बल्कि सम्पूर्ण भारत का है जिसमें अन्य भाषाएं भी शामिल है और विभिन्न स्ट्रीम्स के अभ्यर्थी भी शामिल हैं।

बहरहाल संसदीय समिति उसी दिशा में इशारा कर रही है जिसकी तरफ अभ्यर्थी और एक्सपर्ट पहले भी उंगली उठाते आए हैं। एग्जाम की टफनेस और भाषा विशेष पर जोर नॉलेज और एबिलिटी की खोज का तरीका नहीं हो सकता। जब हमारे प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि आज पूरी दुनिया भारत की ओर देख रही है और विकसित होने के लिए हमें बड़ा सोचना ही होगा, बड़े लक्ष्य हासिल करने ही होंगे अर्थात ‘‘थिंक बिग, ड्रीम बिग, एक्ट बिग’’ के सिद्धांत को अपनाते हुए भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है तो यूपीएससी एक विशेष मानसिकता के साथ क्यों चलना चाहता है ?

(यह ब्लॉग रहीस सिंह ने लिखा है, वह प्रसिद्ध इतिहासकार हैं, जो UPSC के पैटर्न से सम्बंधित हैं )

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